गुरुवार, नवंबर 25, 2021

💢 अंतस की सुंदरता 💢

परखो न बाहरी सुंदरता,
अंतस हो निर्मल पावनता,
विनय, विवेक, संयम, चारित्र्य,
सत्धर्म, संस्कार, मानवता।

दया, करुणा हो सद्भावना,
जीवदया, हो मंगल भावना,
अनुरागी मन, महके जीवन,
सजाये नवरंगी अल्पना।

सृष्टि प्रभु की मनोहर रचना, 
मनमोहिनी यह कवि कल्पना,
मां सर्वोत्तम कृति कल्याणी,
ममतामयी नेह नजराना।

रवि किरणें, धूप सुनहरी,
चंदा की चांदनी रूपहरी,
कण-कण में सुंदरता चहुँदिशि
खिली-खिली ऋतु मनोहारी।

नजरिया हो तो दृश्य सुंदरता,
प्रभु कृपा से हरदिल महकता,
आलोकित आनंद उजाला,
भाव अर्चना, प्रभु शुकराना।

        ✍️ चंचल जैन ( मुंबई, महाराष्ट्र )




💢 व्यवहार अक्सर सौन्दर्य को तय करता है 💢

यूँ तो हर कोई, किसी सुन्दरता पे मरता है
व्यवहार अक्सर सौन्दर्य को तय करता है 

सुन्दरता क्या है बस इक दृष्टिकोण है
ज्ञान के सामने यह सदा रही गौण है
पहली नजर में जो उपजे मन में भाव
प्रत्यक्ष व्यवहार में दिखे उसका अभाव

शारीरिक सुन्दरता में इंसान रोज रमता है
व्यवहार अक्सर सौन्दर्य को तय करता है 

शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ 
सुन्दरता स्थिर! रहे कार्यवश अस्त व्यस्त 
सौन्दर्य मानक शारीरिक होता अधिक 
मन हल्का रखे, ज़रूरत नहीं होंवे व्यथित 

मन मस्तिष्क दोनो को सुन्दर रखता है 
व्यवहार अक्सर सौन्दर्य को तय करता है

देह से परे जा जो सौन्दर्य को पहचाने
कोमल मनोभावों को कोई तो जाने
होता वही पारखी जो गुणों को देखे
यूं तो हर कोई रूप रंग के मिले चहेते

अच्छा स्वास्थ्य में ही सौन्दर्य दिखता है 
व्यवहार अक्सर सौन्दर्य को तय करता है

खुद की ख़ुदी में ही तो खुदा सजीव है
क्यूँ बांवरा मन खुद, खुद का रकीब है
अपने दिल को इंसान गर साफ रखेगा
सबसे खूबसूरत फिर वो इंसान लगेगा

प्रकृति की सुन्दरता देख ऐसा लगता है
व्यवहार अक्सर सौन्दर्य को तय करता है

      ✍️ सुनीता सोलंकी 'मीना' ( मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश )



💢 सुंदरता 💢


कहते है कई अपने पराये
तुम बहुत सुंदर हो 
क्या यही मेरी पहचान है
इसमें मेरा क्या योगदान है
ये तो मुझे जन्म से मिली है
मेरी आंतरिक सुंदरता 
क्यों नहीं दिखती तुम्हें 
मेरी अस्तित्व की लड़ाई 
कठिन रास्तों की चढ़ाई 
मेरे कामयाबी के शिखर 
बुद्धिमत्ता के उच्च स्तर 
मेरी हिम्मत जो कभी न हारती
मेरा नित नया कीर्तिमान 
कभी न खोता स्वाभिमान 
क्यों नहीं दिखता तुम्हें 
हाँ मैं सुंदर हूँ, मानती हूँ
बहुत सुंदर हूँ जानती हूँ
मगर अंदर से बहुत ज्यादा
सुंदर हूँ मन बहुत भोला
सीधा और दयालु है
लेकिन सिर्फ़ रूप से नहीं 
ढेरों प्रतिष्ठा सम्मान कमाए 
बहुत से लोग जानते है मानते है
एक बस तुम ही न देख पाए 
शायद तुम्हारी आँखें थी बंद 
या देखने की क्षमता थी कम 
हाँ मैं सुंदर हूँ, मानती हूँ
बहुत सुंदर हूँ जानती हूँ।

✍️ मीता लुनिवाल ( जयपुर, राजस्थान )



💢सौंदर्य बोध 💢


हथेलियों से गुलाल उछालती,
लाल, केसरिया चुनर लहराती,
सुबह देख मंत्रमुग्ध हो जाऊं ?

या सूरज के घोड़ों पर सवार,
रश्मियों से आँखें चार कर, 
सूरजमुखी से प्रीत लगाऊं ?

होले से पंखुड़ियों को खोल,
कांटों पर कहकशां लगाते,
गुलाब को देख मुस्कुराऊं ? 

प्रकृति के विराट फलक पर,
रच्चनहारे के कमाल का,
मस्त-मौला बन आनंद लूं ?  

सागर के विराट स्वरूप संग, 
लहरों के अनवरत गुंजन का,
विनित हो अनुभूतियों समेटू ?

क्षितिज की अकल्पनीय रेखा तक,
धरती-अम्बर के अद्भुत मिलन का,
सौंदर्य-बोध ले तृप्त हो जाऊं ?

धरती के वक्षस्थल को चीर,
सूरज को निहारते अंकुर सा,
सृष्टि के सृजन का आनंद लूं ? 

अमृतकलश भर-भर ले जाते, 
शुभ्र-श्यामल चंचल बादल सा
पवन संग राग मल्हार गाऊं ?

असह्य प्रसव पीड़ा सहती,
शिशु का रूदन सुनने तरसती,
जननी के जन्नत का नज़रा देखूँ ?

मधुचंद्रमा का बखान करूं ?
या सेनानी का अक्स निहारती,
सुहागन का श्रृंगार निरखूं ?

या सागर की सतह चूमते,
पूर्णमासी के चांद को देख रश्क करूं ?

नयन आसक्त हो जाए ऐसे, 
नज़रों से ओझल राज खोलूं ?

यौवना के मादक सौंदर्य पर बोलूं,
या मुस्कुराते शिशु की बलैया लूं ?

तपती धूप में स्वेद बहाते,
लकड़हारे का शरीर सौष्ठव निहारू ?

खेत-खलियानों में भूमिहारों के,
माथे पें चमकते मोतियों को निरखू ?

प्रकृति के रूप नु रब दे पैमानों पर तोलू ?
रच्चणहारें दा शुक्राना कर, रब से अरदास कर लूं ?

तन सुंदर, मन निर्मल, दृष्टि पावन कर दूं!
सृष्टि के सौंदर्यबोध को शुद्ध भावों से मनभावन कर दूं।।

               ✍️ कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई, महाराष्ट्र )





बुधवार, नवंबर 24, 2021

💢 मधुसूदन 💢











मोहनी मूरत
क्या कम थी जो
मोर-मुकुट माथे पे धार्यो
मधुसूदन की मोहक मुस्कान पे
मीरा..मयूर सों चंचल मन वार्यो

सौंदर्य-ज्ञान जिसके पग चाँपे
तीन लोक अंगुरी पे धारें
बो बांकों तो रीझै केवल
करुण भाव-सरिता पे

जिसको रचकर
स्वयं कमलापति ने
बार-बार बलैयाँ ली
बलभद्र के उसी बालसखा ने
बल पे नहीं
प्रेम पे सगरी दुनिया नचा ली

सौंदर्य सौहे जब कृष्ण सरीखो
कालातीत हो
स्नेह रस भीजै
श्याम वरण
सलोने श्रीमुख पर
सुर-नर सगरे क्यूँ नाही रीझै

              ✍️ सरला सोनी "मीरा कृष्णा" ( जोधपुर, राजस्थान ) 



💢 दिखावटी दुनिया 💢

सुमन ने अपनी छोटी आंखों को मिचमिचाते हुए, खोलने का प्रयत्न किया। धूप सीधे उसके चेहरे पर थी। उसने मजबूरन एक हाथ का पकड़ा थैला, दूसरे हाथ के थैले के साथ पकड़ते हुए, आंखों के ऊपर छज्जा सा बनाकर सड़क की तरफ देखा। कार से उतर कर आती हुई माया मैडम की गरिमामय आकृति वह पहचान गई। उसने अपने चेहरे पर पहना हुआ मास्क ठीक किया।

माया उसे ध्यान से देखती हुई एक निश्चित दूरी पर आ कर रुक गई।

सुमन ? सुमन नाम है ना तुम्हारा ? माया ने पूछा। जी, सुमन ने झेंपते हुए हामी भरी, जैसे कि उसका नाम सुमन होना कोई शर्म की बात है। माया ने मास्क के भीतर से ही कुछ ऊंची आवाज़ में कहा, यहां खाना रख रही हूं। जब इशारा करें तभी बैग उठाना। ठीक है ?

सुमन ने स्वीकृति में सर हिला दिया।

माया ने एक कपड़े का थैला जमीन पर रख दिया। सुमन उसे देखकर मन ही मन खुश हुई, अंदाजन पांच किलो वजन होगा,, उसने सोचा,और वह धीरे धीरे थैले तक पहुंच गई। उसने माया की तरफ देखा ,सुमन की आंखों की मुस्कुराहट को नजरंदाज करते हुए ,माया ने पीछे खड़े फोटोग्राफर को इशारा किया।

सुमन ने धीरे से झुक कर थैला उठा लिया।

फोटो में माया पैकट देते हुए,और सुमन पैकेट लेते हुए, खूबसूरती से कैद हो गए। फोटोग्राफर अपना काम खतम करके सड़क किनारे खड़ी कार की तरफ माया मैडम के साथ विचार विमर्श करते हुए,चल पड़ा।

 उनकी आज की पोस्ट का फोटो तैयार था।

 रोज कोरोना पीड़ितों को मुफ्त खाना बांटने की मुहिम। अखबार में प्रकाशित होती माया की लोकप्रियता की मुहिम।

  इधर सुमन ने अपने थैलों को संभाला और तेज कदमों से बस्ती की तरफ चल दी।

  वहां उसे घरों में बंद बीमार लोगों को खाना देना था। बीमार, बेरोजगार, गरीब दिहाड़ी मजदूर, जो लॉकडाउन में अपने घरों के भीतर भूखे और बेबस हैं, उन्हे खाना, राशन बांटती सुमन लोगों से आवाज़ लगाती, पूछती जाती थी, क्या लाऊं कल क्या चाहिए ? यहां खाना बांट कर सुमन को अस्पताल अपनी ड्यूटी पर भी जाना है।

    दान मिला खाना बांटती सुमन का फोटो खींचने वाला कोई न था।

            उसके मन की सुंदरता का प्रचार करने वाला कोई न था।

                                     

                                ✍️ दिव्या सिंह ( द्वारका, नई दिल्ली )

💢 वास्तविक सौंदर्य 💢


"सुंदरता की खोज में हम चाहे सारे संसार का चक्कर लगा आए अगर वह हमारे अंदर नहीं तो कहीं नहीं मिलेगी" -
         एमर्सन

सुंदरता भला किसको नहीं मोहती। सुंदरता का तात्पर्य महज रूपवान होना ही नहीं अपितु असली सुंदरता गुणों से आंकी जाती है।
 सौंदर्य या सुंदरता हमेशा से ही चर्चा का विषय रहा है। चाहे प्राकृतिक सौंदर्य हो या मनुष्य के विचारों की सुंदरता हो। हिंदी साहित्य तो सुंदरता के उपमानों से भरा पड़ा है ।
जीवन में बाह्य सौंदर्य से अधिक आंतरिक सौंदर्य का महत्व है। साधारणतः लोग बाह्य सौंदर्य पर ध्यान देते हैं परंतु आंतरिक सौंदर्य की अवहेलना कर जाते हैं जबकि बाह्य की अपेक्षा आंतरिक सौंदर्य ज्यादा मायने रखता है। व्यक्ति की अच्छी सोच-विचार जैसा वह सोचता है वैसा ही उसका व्यवहार परिलक्षित होता है।
बाह्य सुंदरता तो वक्त के दौर के साथ ढल जाती है किंतु व्यक्ति की सोच, उसका शिष्ट व्यवहार व्यक्ति के ना रहने पर भी लोगों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ देती है। व्यक्ति का बाह्य सौंदर्य तो प्राकृतिक होता है किंतु जो व्यवहार वह अपने अच्छे संस्कारों से अर्जित करता है उसकी सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं।
उदाहरण के तौर पर कोई व्यक्ति देखने में तो अत्यंत सुंदर है किंतु यदि उसका व्यवहार लोगों के साथ उचित नहीं है या वह कटु वाणी बोलता है तो ऐसा व्यक्ति किसी भी श्रेणी में सुंदर नहीं कहा जा सकता, भले ही वह कितना भी धनी, संपन्न क्यों ना हो ? 
मन की सुंदरता ही उसे एक सफल और प्रसिद्ध व्यक्ति बनाते हैं। मन की सुंदरता का कोई मोल नहीं है इसे खरीदा नहीं जा सकता इसे पाने के लिए व्यक्ति को अपनी सोच को सुंदर बनाना होगा ।
सही मायने में तन से ज्यादा मन की सुंदरता ही वास्तविक सुंदरता है।
"एक खूबसूरत मन ही लोगों के दिलों को जीतने का हुनर रखता है।"

                                     ✍️ डॉ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )

💢 नारी की सुंदरता 💢

नारी की सुंदरता से दमक रही आभा से, रोशन है जग सारा।।
सुंदरता में लक्ष्मी रूप हैं नारी, आँखों में बसे हैं गहरे सागर।।
सुंदरता में सरस्वती रूप हैं नारी, मंजु वन में कंठ विद्या धुन में बसी आत्मा।।
सुंदरता में पार्वती रूप हैं नारी, सौभाग्य महाबला, शिव अर्धांगिनी।।
सुंदरता में सीता रूप हैं नारी, मर्यादा सहनशीलता की देवी।।
सुंदरता में अन्नपूर्णा रूप हैं नारी, खान पान का भंडार।।
सुंदरता में सावित्री रूप है नारी, पतिव्रता में कष्ट निवारणी गृह स्वामिनी ।।
सुंदरता में राधा रूप हैं नारी, प्रेम स्नेह की कोमल छवि।।
सुंदरता में मीरा रूप है नारी, प्रेम भक्ति लीन की योगिनी।।
सुंदरता में मदर-टेरेसा रूप है नारी, सेवा-साधन की पहचान।।
शक्ति में काली, दुर्गा, चंडी रूप अवतार हैं नारी।।
नारी है, सम्पूर्ण विश्व विधाता की सुंदरता।।

सुंदरता इस बात पर निर्भर करती हैं, जिसके मन में कैसी सोच हैं।।

सुंदरता में मन और दिल को देखना, 

चेहरे की सुंदरता आँखों में समाती हैंं, स्वभाव की सुंदरता हृदय में बसती हैंं

सुंदरता देखने वालों के नज़र में होती,

अगर सोच खूबसूरत हैं, तो ईश्वर की हर कृति सुंदर नजर आती हैं।।

सुन्दर होते हैं इंसान के कर्म, विचार और वाणी, व्यवहार और संस्कार,

जिससे जीवन में सब कुछ है,

असल दुनियाँ में सब से सुन्दर रचना इंसान का मन है।।


नारी की सुंदरता में गोरे या काले रंग की त्वचा में भेदभाव ना हो,

नारी की सुंदरता में समाए सारे गुण, 

नारी खुद पर विश्वास रखती हैं और दृढ़ संकल्प से आगे बढ़ती।।

चट्टान जैसी मजबूत होते और वृक्ष सी सृजनशील होती ओस के बूँद सी चमक से चमकती।।

फूल सी कोमल, नाजुक होती, चिड़ियाँ सी हौसलों से बुलंद उड़ान भरती।।

नदी जैसे चंचल मन से सभी के मन में रहती, समुद्र जैसे विशाल हृदय में सब समेट कर रखती है।।

नारी हैं सुंदर, सुंदरता हैं नारी।।


✍️ अर्चना वर्मा ( क्यूबेक, कनाडा )


💢 एक अनमोल बंधन 💢

      

दोस्तों की दोस्ती बहुमूल्य अलंकरण है। दोस्ती बहुत ही खूबसूरत शब्द है जो अपने आप में मानो परिपूर्ण तथा सभी रिश्तो एवं भावों को समेट हुए हैं।

दोस्ती ना उम्र की मोहताज है ना रंग रूप की मोहताज है, ना ही किसी बंधन से बंधी है ना ही किसी रिश्ते में बंधी है यह निर्मल भाव है जिसमें हम किसी का बुरा नहीं सोचते हैं ना किसी को कष्ट में देख सकते हैं।

यह वह भाव है जो स्तंभ के रूप में काम करते हैं हमारी जिंदगी में हम सब की स्थिति परिस्थितियों में आपके सामने शिक्षक खड़े हो जाए तो आपके चेहरे का भाव कैसा हो होता है लेकिन अगर शिक्षक के रुप में ही एक दोस्त खड़ा हो जाए तो आपके चेहरे का भाव तुरंत बदल जाता है दोस्ती हमेशा भाव से जुड़ी है जरिया हमारे-आपके बीच का नि:स्वार्थ भाव है एक सुखद एहसास किसी ना किसी रूप में।

दोस्ती ना होती तो रिश्तो में अपनापन ना होता एक मां का बेटी से.... एक पिता का अपने बेटे से,,,, भाई का बहन से,,, पति का पत्नी से,,, शिक्षक का छात्रों से,,,,और  न जाने कई अन्य रिश्तों से लोगों में लगाव नहीं होता।

मैं, मै ना होती
तुम, तुम सब भी ना होते 
हम, हम सब यहां ना होते 
यह हमारी दुनिया ना होती दुनिया का हम सबसे और हम सबका दुनिया से दोस्ती का यह नाता ना होता 
यह दोस्ती ही है जो अपने आप में हम सब को समेटे हुए हैं लपेटे हुए हैं।
दोस्ती का यह रिश्ता पाक है,,, जिसका जरिया हम और आप हैं,,,
 अर्थात,,
हम लोगों की समझ शक्ति एक जैसी होनी चाहिए,,,,
यह हम सबका कल था ,,,आज है ,,,,और कल रहेगा,,,।
                             
                                        ✍️ लीना प्रिया ( पटना, बिहार )


मंगलवार, नवंबर 23, 2021

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित 'सुंदरता' विषय पर आधारित ऑनलाइन 'साहित्यिक प्रतियोगिता' के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन "साहित्यिक प्रतियोगिता" का आयोजन किया गया। जिसका विषय 'सुंदरता' रखा गया। इस प्रतियोगिता में अर्चना वर्मा ( क्यूबेक, कनाडा ) की प्रतिभागिता ने एक ओर जहां इस राष्ट्रीय स्तरीय प्रतियोगिता को अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता बना दिया तो वहीं दूसरी ओर देश के अलग-अलग राज्यों के प्रतिभागी रचनाकारों ने भी एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट 'सुंदरता' विषय पर आधारित अपनी रचनाओं को प्रस्तुत कर प्रतियोगिता के स्तर को काफी ऊंचा उठा दिया। समूह के निर्णायकों द्वारा रचनाओं की उत्कृष्टता और रचनाकारों द्वारा रचनाओं में प्रस्तुत की गई हृदयस्पर्शी भावनाओं के आधार पर कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई, महाराष्ट्र ), अर्चना वर्मा ( क्यूबेक, कनाडा ) और सरला सोनी "मीरा कृष्णा" ( जोधपुर, राजस्थान ) को ऑनलाइन "पुनीत सर्वश्रेष्ठ रचनाकार" सम्मान देकर सम्मानित किया गया तथा अन्य प्रतिभागी रचनाकारों को ऑनलाइन "पुनीत श्रेष्ठ रचनाकार" सम्मान देकर सम्मानित किया गया। इस प्रतियोगिता में अपनी रचना प्रस्तुत कर समूह की शोभा बढ़ाने वालोे में प्रमुख नाम कुसुम अशोक सुराणा, अर्चना वर्मा, सरला सोनी "मीरा कृष्णा", सुनीता सोलंकी 'मीना', चंचल जैन, डाॅ० ऋतु नागर, दिव्या सिंह, मीता लुनिवाल, लीना प्रिया रचनाकारों के रहे। इस अवसर पर समूह के संस्थापक एवं अध्यक्ष पुनीत कुमार जी ने‌ सभी सम्मानित रचनाकारों को बधाई तथा शुभकामनाएं दी और कहा कि पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह इसी तरह आगे भी ऑनलाइन 'साहित्यिक प्रतियोगिताओं' के माध्यम से रचनाकारों को अपनी साहित्यिक प्रतिभा दिखाने का अवसर प्रदान करता रहेगा तथा नए रचनाकारों को साहित्यिक मंच उपलब्ध करवा के साहित्य के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता रहेगा। उन्होंने समूह द्वारा आयोजित ऑनलाइन साहित्यिक कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए हिंदी रचनाकारों को सादर आमंत्रित भी किया।

सोमवार, नवंबर 15, 2021

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित ऑनलाइन 'बाल दिवस साहित्यिक महोत्सव' के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा बाल दिवस के उपलक्ष्य में ऑनलाइन "बाल दिवस साहित्यिक महोत्सव" का आयोजन किया गया। जिसका 'विषय - बचपन के खेल, सपने और इच्छाएं' रखा गया। इस महोत्सव में इंदु नांदल (बावेरिया, जर्मनी ) सहित देश के अलग-अलग राज्यों के रचनाकारों ने भाग लिया तथा एक से बढ़कर एक बेहतरीन बचपन विशेष और बाल दिवस से संबंधित रचनाओं को प्रस्तुत कर ऑनलाइन बाल दिवस साहित्यिक महोत्सव में चार चाँद लगा दिए। इस महोत्सव में कुसुम अशोक सुराणा (मुंबई, महाराष्ट्र), निर्मला कर्ण (राँची, झारखण्ड) और इंदु नांदल (बावेरिया, जर्मनी) की रचनाओं ने सभी का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। इस महोत्सव में सम्मिलित सभी प्रतिभागी रचनाकार शख्सियतों को ऑनलाइन "पुनीत बाल साहित्य सुमन" सम्मान देकर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर समूह के संस्थापक एवं अध्यक्ष पुनीत कुमार जी ने भारत देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जी को नमन करते हुए देश के सभी बच्चों को बाल दिवस की शुभकामनाएं दी और महोत्सव में प्रस्तुत की गई रचनाओं पर अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देकर रचनाकारों का मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन किया। उन्होंने कहा कि समूह आगे भी इसी तरह से विभिन्न पर्वों एवं विशेष दिवसों के अवसर पर ऑनलाइन साहित्यिक महोत्सव आयोजित करता रहेगा तथा नए रचनाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए ऑनलाइन साहित्यिक मंच उपलब्ध कराता रहेगा। इस महोत्सव में उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करके समूह की शोभा बढ़ाने वालों में प्रमुख नाम कुसुम अशोक सुराणा, चंचल जैन, सावित्री मिश्रा, निर्मला कर्ण, महेन्द्र जोशी, मीता लुनिवाल, इंदु नांदल, डॉ० ऋतु नागर, मंजू शर्मा, मुकेश बिस्सा, सुनीता सोलंकी 'मीना', सविता 'सुमन' रचनाकारों के रहे।

शनिवार, नवंबर 13, 2021

🕺बचपन होता कोमल निर्मल चंचल🕺




   



बचपन होता कोमल निर्मल चंचल
   छू ना पाए इसे कोई कपट वचन 
    भर देती दिल में उल्लास की छाया
       इसका निश्छल भोलापन।

    बचपन का बस एक ही सपना
       सारा जग है प्यारा अपना
        ना दौलत की चाह इन्हें 
       ना ईर्ष्या की राह है होती।

     इनके झगड़े मिटते पल में 
  यह है कमल खिले निर्मल जल में
        बचपन तो वह फूल है 
  जिसमें भरी पावन सुगंध है होती।

     इनकी दौलत कुछ कंचे हैं 
 और मां की टूटी चूड़ियों के टुकड़े
     जिन्हें संभाले रखते हैं यह
  लेकिन साथी को देना ना अखड़े।

      इनकी चाह ना घोड़ा गाड़ी 
और ना कोई बड़ी मूल्यवान सवारी 
 इनके लिए तो सबसे प्यारा माँ की गोदी 
   और पिता के कंधे पीठ की सवारी।

      कौन है अपना कौन पराया 
       इसकी ये पहचान ना करते
       वह इनका अपना है होता
       थोड़ा सा प्यार बस जो दे-दे।

  इनको नहीं है जाति धर्म से मतलब 
     ना यह समझे जग की नीति 
 ज्यों ज्यों बच्चे बढ़ते जाते जग से ही
    सीखें जग की यह कुटिल नीति।

   इनको जैसे है माता सबसे प्यारी 
 वैसे ही धरती माँ भी होती है प्यारी 
 खेलें दिन को धरती में लोट लोट कर  
  और रात को सोयें सुन माँ की लोरी।

 इनकी विस्तृत दुनिया है माँ का आँचल
  और पिता की बाँहें हैं निस्सीम गगन
  यह फूलों से कोमल प्यारे प्यारे हैं 
   और बचपन है विस्तृत उपवन।

   नन्हें बच्चे ज्यों ज्यों बढ़ते जाते हैं 
     अपना भोलापन खोते जाते हैं 
  जग की रीत इन्हें भी सिखला जाती
 अपनी कुरीति, कोमलता खोते जाते हैं।

    हम भी सीख लें कुछ बचपन से 
दिल निर्मल कर पूरे जग को अपना माने
    ईर्ष्या बैर द्वेष मैल को दूर हटा कर
   सब से प्यार करें हम क्लेश न पालें।
 
                  ✍️ निर्मला कर्ण ( राँची, झारखण्ड )


🕺कभी ना जाए मेरा बचपन🕺








जी चाहता है ये हर पल

कभी ना जाए मेरा बचपन
उमर साठ की हो या हो पचपन
कभी ना जाए मेरा बचपन
कभी कभी अकेले में
जी चाहे खूब नाचूँ
बुला लूँ देकर आवाज
जोर से चिल्लाऊँ
हाँ वैसे ही खुश हो जाऊँ
जैसे खाली कमरे में अपनी ही
आवाज की प्रतिध्वनि सुनकर
बार बार चिल्लाना
हाँ कितना भाता था
तितलियों को पकड़ बांध
धागे में उठाना
कितना प्यारा लगता था
कोयल की कूक में आवाज मिलाना
कभी बिल्लियों को चिढ़ाना
कभी बंदर सा मुंह बनाना
पेडो़ं की डाली पर झूले
परियों के किस्से में
सबक स्कूल की भूले
गिल्ली डंडा खोखो कबड्डी
खेल कितने थे प्यारे
कितना प्यारा था
माँ के आंचल का कोना
चिपक कर माँ के साथ सोना
दादी की मजेदार कहानी
एक था राजा एक थी रानी
सचमुच बचपन कितना सुहाना
खुशियों का होता खजाना

              ✍️ सविता 'सुमन' ( सहरसा, बिहार )




🕺बचपन की अठखेलियां🕺








आज भी वह बचपन की,
अठखेलियां याद आते ही,
चेहरे पर चमक आ जाती है,
 वह बचपन के खेल,
 वह सुनहरे पल,
 उन पलों को पुनः जी लेने की,
 लालसा फिर से मचल जाती है,
 ना किसी से राग ना द्वेष,
 ना समय का कोई बंधन,
 वो दोस्तों की मनमौजी को,
आज भी जीता है वह बचपन,
छुपम-छुपाई, पिट्ठू, नदी-पहाड़,
गिल्ली-डंडा जैसे खेल,
घंटों छत पर पतंगे उड़ाना,
गर्मी की छुट्टी में नानी घर जाना,
वहां कैरम, क्रिकेट, लूडो, 
कंचे और लट्टू थिरका कर,
बार-बार खुश हो जाना,
वो घोड़ा-बादाम छाई....
गुलेल से निशाना लगाना,
सच बड़े ही खूबसूरत थे,
बचपन के खेल,
बड़े ही निराले....
बिंदास अठखेलियां.......
खेलता था बचपन।
 
          ✍️ डॉ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )



शुक्रवार, नवंबर 12, 2021

🕺काग़ज़ की नाव🕺

 

याद है मुझे वो मेरी काग़ज़ की नाव 
जो बनाते थे हम अपने बालपन में


जब भी होती थी बारिश भर जाता
पानी सब जगह और तब बनती थी नाव

कॉपी का पेज तो कभी अखबार
पिता जी डांटते थे कॉपी से नही

नाव बना पानी में चलाते-चलाते
दिन यूँ ही बीत जाता धमा चौकड़ी में

किसकी नाव ज्यादा देर चलती है
दूर तक जाती होड़ यही लगती

मस्ती के वो दिन बहुत याद आते हैं
वो प्यारे बचपन के बीते सुनहरे पल।।

         ✍️ मीता लुनिवाल ( जयपुर, राजस्थान )



🕺नटखट बचपन🕺

नटखट, मासूम अल्हड़पन, 
बीते न अलबेला बचपन।
छोटे-छोटे सुन्दर सपने, 
हकीकत से दूर, अनजाने।
मिट्टी के खिलौने, लुभावने,
प्यारे-प्यारे रंगीन, सुहावने।
प्रकृति मां की छांव शीतल,
दुलार का हरियाला आँचल।
कागज की छोटी-सी कश्ती,
बारिश बूंदों की मौज मस्ती।  
धमाल, शोर शराबा, उल्लास चहके,
गूंजे उन्मुक्त, निश्छल हंसी ठहाके। 
खिलखिलाती रहें सदा खुशियां,
रंगरंगीली, मतवाली अठखेलियां। 
सखा, मित्रोंसंग खेले खूब जी भर,
आनंद ,उल्लास से नाचे मनमोर।
मासूम को नहीं चाह महंगे खिलौनों की,
खिलौने स्टेटस सिंबल, चाह दिखावे की। 
बेशकीमती खिलौने, केवल दर्शनीय कृतियों से,
आनंद ढूंढें भी कभी,नहीं मिलता खेलने से।
महज शो केस की शोभा ये खिलौने होते हैं,
चारदीवारी में कैद सपने सतरंगे होते हैं। 
खेलने दो बच्चों को पंछियों से हो उन्मुक्त, 
उनकी अपनी परिधि में, हो भय मुक्त।
मुस्कुराने दो अपने हमउम्र साथियों के संग,
जीवन में सजाने दो विविध, नवल ऋतु रंग।  
खेलने दो खुले मैदानों में, खेत, खलिहानों में, 
लहराते पवन संग, नव तरंग, उमंग सहेजते। 
पर्वत की गगन छूती उत्तुंग चोटियों पर,
वृक्षों की फल-फूल लदी डालियों पर।
उछलते, कूदते, आनंदोत्सव मनाते बच्चे,
भोले-भाले प्रभु से दिल के होते हैं सच्चे,
गिल्ली-डंडा, छुपम-छुपाई,
लंगड़ी, खो खो, नित नई नवलाई।
न सिर्फ गुड़िया, ड्रोन, इलेक्ट्रॉनिक्स,
कंप्यूटर, मोबाइल, विडिओ गेम्स।
सब कुछ हो रहा हैं ऑनलाइन, 
और पालनाघर में सिसक रहा बचपन।
होश, जोश की उम्र आते-आते,
न जाने कब मशीन का पुर्जा बन जाते।
छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच,
न मन में कोई भेदभाव, न कोई खिचखिच।
खुशियां छितराना चाहता है भोला बचपन, 
जैसे कोई खिला खिला गुलजार गुलशन,
फूलों की तरोताजगी, चाहता हैं अल्हड़पन,
दीपित होना हैं तेजस सूरज-सा, चांद सितारों-सा,
ख़ूबसूरत सुनहरा दमकता भविष्य चाहता हैं,
आज बालमन वर्तमान बेफिक्र हो जीना चाहता हैं,
मासूम बचपन जी भर हंसी ख़ुशी जीना चाहता हैं।
फूलों-सा महकना, पंछियों-सा चहकना चाहता हैं,
पर्यावरण मित्र बन, खुलकर मुस्कुराना चाहता हैं।

                        ✍️ चंचल जैन ( मुंबई, महाराष्ट्र )

🕺भरोसा🕺

 

देखो कितना यह हृष्ट-पुष्ट है
यह कुत्ता तो बड़ा दुष्ट है 


जंगल में इक कुत्ता आया
वो खरगोश के पीछे दौड़ा
खरगोश भागा भागा सा
गोमाता के ही पास आया 

खा खाकर हुआ बलिष्ठ है
यह कुत्ता तो बड़ा दुष्ट है 

माँ मुझे यह मारण आया 
इसने मुझे बहुत दौड़ाया 
अपने सींगो से इसको मारो
माँ इसके भय से मुझे उबारो 

यह बना बहुत ही क्लिष्ट है 
यह कुत्ता तो बड़ा दुष्ट है 

माँ बोली भाई तू आया लेट
मुझको घर जाना हो रही देर
मेरा बछड़ा भी भूखा होगा
बार-बार मुझे पुकारता होगा

ख़ुद को समझ रहा विशिष्ट है 
यह कुत्ता तो बड़ा दुष्ट है 

गोमाता को थी बड़ी जल्दी 
घोड़े पास जा भाई, कह वह चलदी
बोला खरगोश घोड़े भाई बचाओ 
मुझको भी अपने संग चराओ

मेरे पीछे कुत्ता पड़ा, मित्र है
यह कुत्ता तो बड़ा दुष्ट है 

घोड़ा बोला बात तेरी ठीक 
तुम कैसे चढोगे मेरी पीठ
यार मै बैठ नही पाता हूँ 
मैं बैठे-बैठे ही सो जाता हूँ

आजकल मेरे बढ़े सुम है 
यह कुत्ता तो बड़ा दुष्ट है 

निराश हो चल दिया खरगोश 
गधे के पास मनाया अफसोस 
मित्र गधे पाजी ! कुत्ते को मारो
अपनी इक दुलत्ती इसपे झाड़ो

गधा तो गाय, घोड़े के संग है 
यह कुत्ता तो बड़ा दुष्ट है

इन दोनो के साथ मैं जाऊं घर
वरना  मेरा मालिक मारेगा धर
पीटते-पीटते निकाले कचूमर
मैं यहाँ ना ठहरूँ अब इक पल

मिलेगा कैसे इसको दंड है
यह कुत्ता तो बड़ा दुष्ट है 

खरगोश बकरी के पास आया
बकरी बोली भाई इधर न आ
तेरे पीछे इक कुत्ता आ रहा
मुझको उससे है डर लग रहा

निराश खरगोश हुआ त्रस्त है
यह कुत्ता तो बड़ा दुष्ट है

खरगोश छिपा इक झाड़ी में
बहुत ढूंढा अब कुत्ते अनाड़ी ने
उसे खरगोश का ना पता मिला
अब खरगोश झाड़ी से निकला

औरों के भरोसे बड़े कष्ट है 
 यह कुत्ता तो बड़ा दुष्ट है
         
          ✍️ सुनीता सोलंकी 'मीना' ( मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश )



🕺बाल दिवस मनाए कैसे ?🕺

 










बालक अधिकार माँग रहा,
गली, चौराहों और सड़कों पर,
बड़ी-बड़ी कमीशन बैठी,
मिला ना बालक को मुट्ठी भर।

बाल दिवस मनाए कैसे ?
जब 70% पीड़ित हैं,
रतन जड़ा आज कोट पर,
109 बालक रोज उत्पीड़ित हैं।

कलम बहुत ही क्रोधित हैं,
लिखना ना चाहे रत्ती भर,
जब 90% पीड़ित बच्चे,
सिसकी भरते अपने ही घर।

मुलभूत सुविधा से वंचित,
ना नृत्य ना नाटक होगा,
कांटों पर चला जो बचपन तो,
भविष्य में तांडव ही होगा। 

प्रीत-रीत बदलना होगा, 
हर बालक की ख़ातिर लड़ना होगा, 
स्वतंत्र भारत के भविष्य की ख़ातिर, 
सबको मिलकर बढ़ना होगा।

  ✍️ मंजू शर्मा ( सूरत, गुजरात )



🕺काग़ज़ की कश्ती🕺

 

नही सिर्फ़ ये काग़ज़ की कश्ती,
भरी है इसमें बचपन की मस्ती।
आया सावन नदियाँ भर गईं, 
बच्चों की काग़ज़ की नाव  गई।


हाथों में लेकर भागे सब नाव,

धरती पर नही पड़ रहे थे उनके पाँव।

बचपन की गलियों में खेल रहे थे बच्चे ,

आनंद उनके लग रहे थे कितने सच्चे


हिलती-डुलती हिचकोले खाती लगी नाव तैरने,

देख तैरती अपनी नाव बच्चों की आँखें लगी चमकने।

ये नज़ारा जैसे इक सपना था,

दिखा रहा मेरा बचपन था


मैंने भी इक नाव बनाई,

जाकर बच्चों संग चलाई।

एक अद्भुत ख़ुशी मैंने पाई,

जब अपने बचपन से आँख मिलाई।


काग़ज़ की नाव चली,

गाँव चली,

कभी शहर चली।

गलियों से गुज़रती,

पल भर  ठहरती।

गड्ढों से निकलती,

पत्थरों पर उछलती।

मंज़िल पाने में हुई मनचली,

काग़ज़ की नाव चली,

गाँव चली,

कभी शहर चली।


बच्चों ने इक सीख सिखा दी,

सच्चे ख़ज़ाने की पहचान करा दी।  

बह रही थी काग़ज़ की नाव,

जगा रही थी सोए भाव।


देख नज़ारा ये मैं खो गई,

भूलभुलैया सी ज़िंदगी में खुद को पा गई

तभी सुनाई दी बच्चों की किलकारियाँ,

कूद रहे थे सबसाहिल पा गईं थी कश्तियाँ 


              ✍️ इंदु नांदल ( बावेरिया, जर्मनी )



पुनीत अनुपम ग्रुप द्वारा आयोजित ऑनलाइन स्नेह ध्येय सृजन महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम ग्रुप द्वारा लोगों को स्नेह के महत्व और विशेषता का अहसास करवाने के उद्देश्य से ऑनलाइन स्नेह ध्येय सृजन महोत्सव का आयोजन किया गया...