जिंदगी कब क्या मोड़ दिखा दे कोई नही जानता। नही जानते थे दीनानाथ जी कि जिस बेटे को न देखने की कसम खाई है, उसे एक दिन खुद ही फोन कर अपनी लाचारगी दिखाते हुए बुलाना पड़ेगा। बहुत अहंकारी थे। बेटे की परवरिश में कोई कसर नही छोड़ी। अविनाश भी महत्त्वाकांक्षी था। जैसा-जैसा पिता चाहते गए अरमान पूरे करता गया और जब पिता का नाम रोशन कर विदेश गया गांँव का कौन सा घर होगा जहाँ उस दिन चूल्हा जला होगा अरे भई पूरे गांँव वालों के साथ खुशी मनाई गई थी। शुरू के कुछ साल उत्साह में बीते लेकिन एक दिन अचानक एक फोन ने रिश्ते बदल डाले।
"पापा, आपसे कुछ कहना चाहता हूँ !"
"अब ये मत कहना छुट्टी नही मिल रही। दो साल हुए तेरी शक्ल देखे। अब आ जा मेरे बच्चे ! तेरी माँ की तबियत भी ढीली है अपनी बहू को लाने का अरमान रख, खुद को संँभाले हुए है।"
"पापा... कुछ कहना है आपसे ? "मैं आ तो रहा हूँ लेकिन अकेला नही !"
"मतलब !"
"मैने शादी कर ली है।"
एक वज्रपात सा उनके दिल के टुकड़े कर गया।
"शादी कर ली बिना हमें बताए ? वो औरत जिसकी उँगली पकड़े बिना तू एक कदम भी नही बढ़ा पता था, वो पिता जिसकी हाँ सुने बिना, तू गर्दन नही उठाता था। तू इतना बड़ा हो गया...! हमने इतने विश्वास से तुझे भेजा और तूने हमारे ख्वाबों के साथ.... विश्वासघात किया है। आज से तेरा और हमारा कोई संबंध नही। मेरे जीते जी इस घर की तरफ रुख मत करना।"
"पापा.....!"
कहाँ जानते थे दीनानाथ जी कि एक दिन अपना स्वाभिमान दांँव पर रख बेटे को फोन कर बुलाना पड़ेगा।
धर्मपत्नी ने बिस्तर क्या पकड़ा, मोहित को बुलाने की जिद्द पकड़ बैठी।
"माफ कर दीजिए ना उसे। जाने से पहले एक बार उसे देख लूँ तो चैन से जा पाऊंँगी।"
कहते हैं ना किस्मत में लिखा कोई नही टाल सकता। ये ज़िन्दगी कब क्या खेल खिला दे कोई नही जानता। आज अपना अहम किनारे रख बेटे को फोन कर आने को कह दिया।
"पापा आपका कहना ही काफी है। मैं तो तरस गया था आप लोगों को देखने के लिए ।"
बेटा तुरंत पहली फ्लाइट पकड़ परिवार सहित पहुँच गया लेकिन फिर वही बात ज़िंदगी इतनी आसान कहाँ होती है ! उसके पहुँचने से पहले माँ चल बसी।
भारतीय मूल की विदेश में जन्मी लड़की दीनानाथ जी की बहू बन पहली बार इंडिया आई थी। बिल्कुल देशी रंग में रंगी, जिम्मेदारियों को निभाती रही। यही नही उसकी सौम्यता, व्यक्तित्व हर एक के लिए उदाहरण का पात्र बन चुके थे। दीनानाथ जी बारह दिन में पुराने गिले-शिकवे सब भूल गए।
बेटा-बहू कुछ दिन यहाँ रहकर, पापा का मन बदलने के लिए उन्हें अपने साथ ले गए लेकिन दीनानाथ जी ठहरे गाँव के आदमी कुछ दिन रह वापिस आ गए।
अब बच्चों से संबंध अच्छे बन चुके थे। वो अक्सर फोन पर बात करते। आज बेटे से फोन पर बात के बाद दीनानाथ जी कुछ विचलित दिखाई दिए।
धर्मपत्नी की फोटो के आगे लाचारगी से खड़े होकर बोले,"आखिर दिखा ही दी उसने अपनी औकात ! जो बेटा समय रहते धोखा दे गया था वो अचानक से मेरा कैसे हो सकता था। न जाने क्यों मैं उसके भोलेपन में फंस गया। जानता था तुम्हारी जिद्द, तुम्हें मेरी चिंता थी कि तुम्हारे जाने के बाद मेरा क्या होगा। क्यों मैंने तुम्हारी बात के आगे घुटने टेक दिए। चालाकी देखो माँ की मौत पर आकर सबकी नजरों में अच्छा बन गया। कौन जानता था नजर कहीं और थी!"
लगा धर्मपत्नी मुस्कुरा कर कह रही हो, "देखो जी कई बार स्थिति जैसा हम सोचते हैं उसके विपरीत होती है। एक बार खुलकर बात करो। पता नही क्यों अविनाश गलत होगा ऐसा मुझे नही लगता।"
कल आ रहा है लगता है ये आखिरी मुलाकात होगी। स्पष्ट कह दूँगा तुम्हारी मांँ की वजह से मैंने तुम्हें आने की इजाजत दी थी।
अगले दिन बहू और अविनाश पहुँच गए। बहू को घर संभालते बिल्कुल समय नही लगा। पापा का ख्याल रखना, समय पर दवाई देना से लेकर आए-गए का करना। सर्वगुण सम्पन्न कहें तो गलत नही होगा। उसका व्यवहार देख दीनानाथ जी चाहते हुए भी कुछ कहने की हिम्मत नही कर पा रहे थे। अगले दिन तीनों बैठे बातें कर रहे थे।
खट-खट
"जी कहिए ?"
"अविनाश जी है। मैं फाइनैंस कंपनी से आया हूँ। मीटिंग करने को कहा था।"
अविनाश ने पिता को उनसे मिलवाया," पापा ये इंजीनियर हैं और साथ में फाइनैंस कंपनी वाले। अपनी जमीन का ब्यौरा देना होगा हम उस पर लोन उठाकर काम शुरू करवाना चाहते हैं।"
मन से टूटे दीनानाथ जी, तबियत खराब का बहाना बनाकर अंदर चले गए। अविनाश ने उन्हें फिर बुलाने का कह रुखसत ली। शाम को पिता के साथ वार्तालाप में अविनाश ने फिर बात छेड़ दी,"पापा, अपने पास कितने एकड़ जमीन होगी ? उस पर काम शुरू करवाएँगे तो लोन मेरे नाम से या सुजाता के नाम से लेना होगा।"
अब दीनानाथ जी के सब्र का बांँध टूट चुका था।
"तुमने मुझे इतना कमजोर समझ लिया। पाई-पाई जोड़कर मैंने ये जमीन खड़ी की है। तुम्हारी माँ के जाने से मैं अकेला जरूर हो गया हूँ असहाय नही। अपनी ज़िंदगी से जुड़ी एक मनमानी तुम कर चुके हो जिसके लिए तुम्हारी माँ की वजह से मैंने तुम्हें माफ कर दिया। तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मेरे जीते जी, तुम मेरी जीवन भर की कमाई पर लोन उठा रहे हो !"
"पापा क्या गलती हुई मुझसे ? अंत-पंत जमीन की देखभाल तो मुझे ही करनी है और यदि समय रहते हमने कदम उठा लिया तो क्या गलत किया ?"
"मैं तुमसे किसी बात पर सवाल-जवाब नही करना चाहता। वो जमीन मेरी है और सिर्फ मेरी।"
बहू दूर खड़ी दोनों की बातें सुन रही थी।
"पापा हम किसके है ? क्या आपने अभी भी हमें माफ नही किया। अविनाश आप लोगों के बिना अधूरे थे। मेरे पापा डेथ बेड पर थें उनकी जिद्द थी। भारतीय मूल के लड़के से मेरी शादी करने की। अविनाश के हाथ में मेरा हाथ दे उन्होंने चैन की सांस ली लेकिन इन्होंने मुझसे शादी नही की और तब तक नही करना चाहते थे जब तक आप लोगों का आशीर्वाद नही मिल जाता।
यकीन मानिए आप लोगों को हमारा बिना शादी के इस तरह साथ रहना भी पसंद नही आता इन्होंने अभी यहाँ से जाने के बाद मुझे पत्नी रूप में स्वीकार किया है। आपके संस्कार बहुत मजबूत है पापा, आपने कैसे सोच लिया कि हम जमीन आपसे लेकर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करेंगे। जब आपका हमारे साथ मन नही लगा तो अविनाश का मन भी वहाँ से उखड़ चुका था। वो आपको किसी कीमत पर अकेला नही छोड़ना चाहते थे इसलिए हमने निश्चय किया कि यहाँ से सब छोड़-छाड़ कर गाँव की जमीन पर मशरूम की खेती करेंगे। मैंने भी हॉर्टिकल्चर में एम.एस.सी की है सोचा था अपनी पढ़ाई और आपके अनुभव का फायदा उठाकर आपके साथ यहीं रहेंगे लेकिन यदि आपको ये प्रस्ताव नही पसंद.....तो...!"
दीनानाथ जी बहू की बातें सुन आत्मग्लानि से भर उठे। वो क्या समझ रहे थे और ये क्या हुआ !
धीरे से वहांँ से उठ धर्मपत्नी की फ़ोटो के पास जा खड़े हुए...,"तू सही कहती थी मैं बहुत जल्दी में निर्णय ले लेता हूँ। बच्चे हमेशा गलत ही हो ऐसा नही है। आजकल के बच्चे बहुत व्यवहारिक हो गए हैं। तुम्हारे और मेरे दिए संस्कार कभी गलत नही हो सकते। हमारा अविनाश लौट आया है बहू को लेकर।
अगले दिन फाइनेंस के कागजात साइन कर दीनानाथ जी ने अविनाश के आगे कर दिए, "बस एक इच्छा है उसके जाने के बाद भी उसका वजूद हम सबके बीच जिंदा रहे इसलिए अपनी फर्म का नाम अपनी माँ के नाम पर रखना।"
✍️ मीता जोशी ( जयपुर, राजस्थान )