गुरुवार, जुलाई 29, 2021

* पूज्य गुरु चरणों में वंदन *


उम्मीद दीप करे प्रदीप,जगमग उजियार
ज्ञान किरणों से मिटाते अज्ञान अंधियार,
ज्ञान कुसुम खिलाकर जीवन पथ आसान,
विद्याधन अर्पित करते ज्ञानी गुरु महान।

कला,कौशल पारंगत,बनाते आत्मनिर्भर
किताबों संग हो मित्रता,यह हैं ज्ञान निर्झर।
जिज्ञासा हमारी कर शांत,करते नव सृजन
विनय,विवेक,शील,चारित्र्य,देते संस्कारधन।

बहती निर्मल धारा जैसे आसपास महकाते,
संस्कारों से सुविचार,सदाचार बहु उपजाते।
आत्मनिर्भरता,स्वाभिमान से महकाते कण कण
सिखाते विवेक,विनय,सद्भावना,सदाचरण

कल्याणकारी,सत्यार्थी,सन्मार्ग दर्शक
गुरु हमारे धर्म कर्म पथ प्रदर्शक।
जीवन नैया कौशल से खेते खेवनहार,
हिम्मत,हौसले की आप सक्षम पतवार।

नील गगन में भरने ऊँची ऊँची उड़ान
साहस,संबल देते सदा सकल ज्ञान।
पारस से अनमोल,चतुर जौहरी जाण,
चट्टानों से नवपल्लव का देखे ख्वाब।

शिल्पकार आप घडते हो अनुपम कृतियां,
ज्ञानमोती पिरोकर बनाते हो सुन्दर लड़ियाँ।
चुग लो जी भर ज्ञान कण,ऐसा हो सौभाग्य,
महा ज्ञानी गुरु की निश्रा मिलना,अहा!अहोभाग्य।

प्रभु परमात्मा,पूज्य माता पिता,गुरुजनों का
करे विद्यार्थी नित आदर सम्मान,धन्यवाद।
आशीष अमीरस धारा से,महके जीवन पुष्प,
गुरु चरणों में मिले शरण,मान सम्मान,आशीर्वाद।

वीणा वादिनी,माँ शारदे नमन करूँ,आशीष दो,
विद्या,सुख,संपत्ति,समृद्धि,कृपा दृष्टि खूब बरसो।
पूज्य गुरु चरणों में शत-शत वंदन करो !
माता पिता की सेवा कर नित मेवा पाओ।

                ✍️ चंचल जैन ( मुंबई, महाराष्ट्र )

* गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं *


गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं ?
अज्ञान तिमिर कैसे हर जाऊं ?

मैं बालक ! मंद, अबोध, अज्ञानी,
वेद-शास्त्र, धर्म-मर्म कछु न जानी।

गीता, कुरान, बाइबल, गुरुवाणी।
आगम, उपनिषद्, ज्ञान की खाणी।

आतम ज्ञान ज्योत, कैसे प्रकटाऊं ?
गुरु बिन ज्ञान, कहां से मैं पाऊं ?

मैं मूढ़ ! कैसे बनु पंडित, ज्ञानी ?
गुरु बिना कौन समझाएं वाणी ?

गुरु ! मैं काष्ठ, आप श्री हुनर के धनी।
छीलत, गढ़त मूरत बहुविध सोहनी।

सद्गुरु ! आप कुम्हार, मैं गीली मिट्टी,
दे आकर कुशल हाथ, चक्के पे मिट्टी।

गुरुवर! मैं भीगे आटे की कच्ची लोई,
अंगीठी चढाई आप फुल्का मृदु पोई।

गुरु ! तुम बिन ना मोक्ष, ना हैं मुक्ति।
गुरु ! तुम कृपा बिन निरर्थक भक्ति।

गुरु ! ब्रम्हा, विष्णु, गणाधिश, ज्ञान प्रदाता।
गुरुकृपा बिन कैसे हो भव पार विधाता ?

गुरु सुमिरण सु सफल मनुज जन्म भारी।
गुरु चरण रज देव, धर्म, दर्शन हितकारी।
       
        ✍️ कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई , महाराष्ट्र )

* गुरु और गोविंद *

गुरु और गोविंद समान कहूँ या

गुरुवर को कहूँ बढ़कर सबसे।
बिन गुरु ज्ञान अधूरा है मानव
सब ग्रंथ कहें यह जाने कब से।

ईश्वर का जो है नाम सिखाये
सच्चाई का पथ बतलाता है।
हर अँधियारे को दूर करे वो
सच्चाई ही जो सिखलाता है।
गुरु की है महिमा अजर-अमर

कहते ज्ञानी है जीवन जब से।

गुरु में ऐसी शक्ति निहित जो
अज्ञान का अँधियारा भगाता।
माया ठगिनी के जाल काटके
मोह निद्रा से सबको जगाता।
बिन गुरु ज्ञान अधूरा है मानव
सब ग्रंथ कहें यह जाने कब से।

आलोकित करता वह जीवन
ज्ञानचक्षु खोले नित जन के।
करता गुरु ही निर्मल जीवन
विषय वासना हटते मन के।
करते गुरु चरणों में नमन हैं
वे मिले हमें जीवन में तब से।


  ✍️ डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा" 

* गुरु पूर्णिमा *


गुरु एक बड़ा ही गूढ़ गंभीर शब्द है। यह संस्कृत भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है अंधकार को भगाने वाला। अंधकार यानी अज्ञानता। अज्ञानता को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाला। 

गुरु वह होते हैं जो आध्यात्मिक ज्ञान देते हैं, जो शिक्षक और अध्यापक होते हैं, या फिर धनुर्विद्या वेद पाठ, युद्ध कला आदि भी सिखाते हैं। रामायण से लेकर महाभारत काल तक गुरु का स्थान सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण था इसलिए कहा गया है __

 गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा
 गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः
अर्थात गुरु ही ब्रह्मा है गुरु ही विष्णु है और गुरु ही शिव है गुरु ही साक्षात परब्रह्म है इसलिए गुरु को प्रणाम है |
 सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु और संहार करता शिव गुरु में ही समाहित हैं |
 गुरु पूर्णिमा का पर्व महर्षि वेदव्यास के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। वेद व्यास ऋषि पाराशर के पुत्र थे उन्होंने श्रीमद् भागवत, महाभारत और 18 पुराणों की रचना की थी। उन्हें त्रिकाल ज्ञाता भी कहा जाता है। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। कबीर ने गुरु के महत्व को इन पंक्तियों में दर्शाया है।
 गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय
 बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाय
अर्थात गुरु और गोविंद यदि दोनों एक साथ खड़े हों, तो पहले हमें गुरु को प्रणाम करना चाहिए क्योंकि गुरु ने ही हमें ईश्वर की सत्ता का ज्ञान कराया है इसलिए गुरु की सत्ता ईश्वर से भी बड़ी है। गुरु सामने हो या ना हो उसके स्मरण मात्र से हमारे कष्ट दूर हो जाते हैं।
 गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है
 गढ़ी गढ़ी काढ़े खोट
 अंतर हाथ सहार दे
 बाहर वाहे चोट
अर्थात जिस तरह एक कुमार घड़ा बनाने से पहले मिट्टी सेएक एक कंकड़ को चुनकर निकालता है उसी तरह गुरु भी अपने शिष्यों के एक-एक दुर्गुण को चुनकर निकालते है। वह घड़े को आकार देने के लिए एक हाथ से ठोकता हैं तथा दूसरा हाथ घड़े के अंदर रखता हैं ताकि उसका आकार ना बिगड़े | गुरु भी इसी तरह अपने शिष्यों को एक सच्चा इंसान बनाते हैं | कठोर अनुशासन में रखकर उसके दुर्गुणों को दूर करते है। हमारी पहली गुरु हमारी मां होती हैं उनकी दी हुई सीख हमें जीवन भर याद रहती है इसलिए गुरु के रूप में पहले हमें मां को प्रणाम करना चाहिए। गुरु के प्रति हमें पूर्ण आस्था और विश्वास रखना चाहिए। गुरू ही हमें जीवन का सही मार्ग दिखा सकते हैं। इस गुरु पूर्णिमा पर सद्गुरु का शत-शत नमन, वंदन और सादर अभिनंदन।    
"जय गुरुदेव"
           
                      ✍️ संध्या शर्मा ( मोहाली, पंजाब )

* गुरु की महिमा अनंत अपार *

गुरु की महिमा अनंत अपार,
 कैसे करूं बखान,
तमस में ज्योतिपुंज दिखाएं गुरु ऐसे महान,
अज्ञानी मन को ज्ञान से प्रज्वलित कर देते,
ज्ञान बिन जीवन सार अधूरा,
गुरु हमको यह बतलाते,
विभिन्न कलाओं और संस्कृतियों का ज्ञान गुरु हैं करवाते,
 गुरु की दृष्टि में सब समतुल्य,
 देते वह सबको ज्ञान,
 गुरु के शिक्षा ही की खातिर एकलव्य ने अंगूठा दान दिया,
 गुरु ने ही वीर अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धर मान दिया,
 देवकीनंदन ने महाभारत में गुरु बनकर गीता का सार दिया,
 गौतम बुद्ध ने गुरु बनकर "अहिंसा परमो धर्म:" का ज्ञान दिया,
 गुरु हर परिस्थितियों से लड़ने का मार्ग सुझाते हैं,
 दुर्गुणों को दूर कर गुणों की खान बनाते हैं,
 गुरु ही है जो गीली मिट्टी रूपी शिष्य को सुंदर घट बनाते हैं,
 कण-कण में है ईश्वर का वास इसका भान कराते हैं,
गुरु की महिमा अनंत अपार, कैसे करूं बखान।

                    ✍️ डॉ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )

* जीवन में होते हैं कई गुरु *

जीवन में हमारे होते है कई गुरु 
जो देते हमे ज्ञान पल-पल में अपार
पहला गुरु होती है माँ जो लाती 
हमे दुनिया मे सहके दुख अपार
सिखाती प्यार और विश्वास 

दूसरा गुरु होता है पिता 
जो सिखाता दुनिया में 
जीने के गुण अपार

तीसरा गुरु होता है शिक्षक 
जो हमे अच्छे-बुरे का ज्ञान कराता
ज्ञान से जीवन जग-मग कर देता

चौथा गुरु होता है दोस्त
जो सहयोग, ईमानदारी,
वफादारी का पाठ पढ़ाता 

पाँचवा गुरु होते रिश्तेदार
जो जरूरत के मुताबिक
रिश्ते निभाना सिखाते

फिर वो हर व्यक्ति गुरु है
जो जीवन में हमे भला-बुरा
जैसा भी है ज्ञान कराते
नए नए अनुभव कराते
नई नई कई सीख है देते

          ✍️ मीता लुनिवान ( जयपुर, राजस्थान )

* हमारे गुरु *

जीवन में करते प्रकाश, ये है पथ प्रदर्शक,
नीरव में भरते उल्लास, ये है युग प्रवर्तक।

कच्ची मिट्टी को ये देते हैं सुंदर स्वरूप,
सच्ची झूठी दुनिया का दिखाते रूप।

नन्हें पौधों को चाहिए खास ख्याल,
बगिया का माली से अच्छी ‌कौन करें
देखभाल।

देश का भविष्य बनाना मामूली नही काम
पढ़ाई चाहे ऑनलाइन हो या ऑफलाइन
मुश्किल है ये काम।

महाभारत के द्रौणाचार्य या अब्दुल कलाम
गुरू महिमा को और शिक्षकों को मेरा सलाम।

विश्व गुरू ऐसे ही नहीं भारत कहलाया,
अध्यात्म से लेकर, टेक्नोलॉजी का
परचम इसने लहराया।

गोविन्द से श्रेष्ठ गुरु को मिला स्थान,
हमारी संस्कृति की कहलाते शान।

           ✍️ हरप्रीत कौर ( कानपुर, उत्तर प्रदेश )

* गुरु का महत्व *


गुरु एक आदर है  ... गुरु एक आदर्श है ... गुरु ही एक सीख है और गुरु ही देव है । गुरु का महत्व हमारे प्राचीन समय से चला आ रहा है, गुरु में हर एक  शिष्य के लिए , उनके आचरण के लिए उनको त्याग शील  बनाए रखने के लिए, उनको अपने कर्म में ईमानदार होने के लिये उन्हीं से ही सीख मिलती है।


गुरु का सम्पूर्ण जीवन अपने  शिष्य के लिये समर्पित रहता है, उसका हर समय अपने शिष्य को सही सीख देने के लिये अग्रसर रहता है, जीवन के किसी भी मोड़ में गुरु और शिष्य एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते हैं। हर वक्त गुरु शिष्य के लिये एक आदर्श होते हैं।

एक छोटे से बच्चे की प्रारम्भिक गुरु उसकी माँ होती है, जीवन के प्रथम पड़ाव में वह बच्चा अपने माँ से ही हर संस्कार सीखता है। माँ उसके जीवन की बुनियाद होती है, उसकी पहली किरण , पहली रोशनी और पहली सीढ़ी होती है।

उसकी चंचलता को माँ ही नियन्त्रित करती है , उसको एक  आयाम देती है । जीवन के हर क्षेत्र में  उसको नसीहत देती है ,उसको समझाती है , उसको डाटती है । वक्त आने पर उसकी मारती भी है , और उसको एक नेक तासीर देने के लिये हृदय से प्रेम भी करती है। एक गुरु के साथ साथ माँ का भी किरदार बहुत ही शिद्द्त से निभाती है ।

बच्चा  जैसे ही विद्यालय पहली बार जाता है तो वह अपने दूसरे गुरु से मिलता है। ये दूसरा गुरु ही उसके जीवन का आधार होता है ,माँ ने नीवं तैयार किया बच्चे की काया बन के और एक पहली शीर्षक बन के ...  

विद्यालय से बच्चे के जीवन में एक औपचारिकता का शुभारंभ होता है ।जीवन के हर क्षेत्र में उसको सिखने का अवसर प्रदान किया जाता है ।

अपनी अच्छाई और बुराई से वह रुवरु होता है ,हर तरह के लोगों से मिलता है ।हर अच्छी और बुरी परिस्थिती से कैसे निपटा जाए ? 
उसे इसका भरपूर  ज्ञान प्राप्त होता है ।

जीवन की बुनियाद माँ और इमारत गुरु की ही देन  होती है। गुरु जीवन यापन से लेकर जीवन दर्शन  के सूत्रधार होते  हैं। हर बुरी सी बुरी परिस्थिती में गुरु के जीवन सूत्र, उनके आदर्श , उनकी  शिक्षा और उनके सिध्दान्त जीवन के हर बुरी से बुरी स्थिती में साथ देते हैं ।

गुरु के आदर्श हर  शिष्य के सम्पूर्ण जीवन में अमर रहते हैं ,
उसके जीवन के लिये संजीवनी बूटी के भांति उपयोगी होते हैं ।

विडंबना ये है की कुछ शिष्य गुरु के आदर्शों के बिल्कुल खिलाफ हैं उनकी सीख उनके लिये ना कुछ के बराबर है। गुरु के सामने अपने आप को बड़ा आंकना उनका अहम है , उनका गुरूर है।

इसके विपरीत कुछ शिष्य गुरु के समान उनका अनुसरण करते हैं। उनको अपने जीवन का मार्गदर्शक मानते हैं। उनसे हर क्षेत्र में सलाह लेते रहते हैं । उनकी शिक्षा ही उनके लिए जीवन की आगामी श्रृंखला और उनका मार्गदर्शन होता है। 
                                         ✍️ डॉ० उमा सिंह बघेल ( रीवा, मध्य प्रदेश )

सोमवार, जुलाई 26, 2021

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तरीय ऑनलाइन गुरु पूर्णिमा साहित्यिक महोत्सव में गुरु महिमा का गुणगान करने वाले प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा गुरु पूर्णिमा के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन "गुरु पूर्णिमा साहित्यिक महोत्सव" का आयोजन किया गया। जिसका विषय 'गुरु का महत्व' रखा गया। इस महोत्सव में देश के अलग-अलग राज्यों के रचनाकारों ने भाग लिया तथा एक से बढ़कर एक गुरु के महत्व, विशेषता, भक्ति तथा महिमा पर आधारित अपनी श्रद्धा भावों से ओत-प्रोत रचनाओं को प्रस्तुत कर मंच पर गुरु भक्ति के अद्भुत दृश्य को प्रकट किया। इस महोत्सव में डाॅ० सरला सिंह "स्निग्धा" (दिल्ली) और कुसुम अशोक सुराणा (मुंबई, महाराष्ट्र) की गुरू भक्ति भावना से परिपूर्ण रचनाओं ने सभी का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। इस महोत्सव में सम्मिलित सभी प्रतिभागी रचनाकार शख्सियतों को ऑनलाइन "पुनीत गुरु आशीष" सम्मान देकर सम्मानित किया गया। इस महोत्सव में उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करके समूह की शोभा बढ़ाने वालों में प्रमुख नाम वाणी कर्ण‌‌‌, मंजू शर्मा, प्रतिभा तिवारी, संगीता सिंघल विभु, डॉ. उमा सिंह बघेल, अनुपमा तोषनीवाल, डाॅ. ऋतु नागर, संध्या शर्मा, दीप्ति श्रीवास्तव खरे, डाॅ. सरला सिंह "स्निग्धा", चंचल जैन, कुसुम अशोक सुराणा, हरप्रीत कौर, भारती अग्रवाल, सुनीला गुप्ता, निर्मला सिन्हा, निर्मला कर्ण, मीता लुनिवाल रचनाकारों के रहे। इस अवसर पर समूह के संस्थापक एवं अध्यक्ष पुनीत कुमार जी ने विश्व के समस्त गुरुओं को उनके श्रेष्ठ कार्यों के लिए कोटि-कोटि नमन किया और सभी प्रतिभागियों को गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व की बधाई एवं शुभकामनाएं दी तथा महोत्सव में प्रस्तुत की गई रचनाओं पर अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देकर रचनाकारों का मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन भी किया। उन्होंने कहा कि पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह इसी तरह आगे भी ऑनलाइन साहित्यिक महोत्सवों के माध्यम से रचनाकारों को अपनी साहित्यिक प्रतिभा दिखाने का अवसर प्रदान करता रहेगा तथा नए रचनाकारों को साहित्यिक मंच उपलब्ध करवा के साहित्य के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता रहेगा।

शनिवार, जुलाई 24, 2021

* गुरु वंदना *

गुरु पूर्णिमा है आज करें सब दिल से
अपने-अपने गुरु को नमन वन्दन
पर मैं सोचूँ क्यों हो एक दिन का बन्धन
क्यों ना करूँ मेरे गुरु का हर दिन पूजन

   गुरु से हमको है ज्ञान मिला
   गुरु के कारण ही है सम्मान मिला
   अक्षर ज्ञान सिखा कर दिव्य ज्योति
   देने वाले गुरु ने विद्या का दान दिया

अक्षर ज्ञान सिखा कर हमको विद्वान बनाया
गुरु की कृपा बिना होती हर विधा अधूरी
फिर कैसे होती अपनी दीक्षा पूरी
नमन करें ऐसे गुरु को हम दिन रात
गुरु बिन हमारी नही कुछ औकात

नमन करूँ मैं जीवन के प्रथम गुरु को
वह है मेरी माता अपनी जिसने हमको
खाना पीना हँसना रोना सिखला कर
पहला जीवन का ज्ञान दिया

मां के आंचल में छुप जीवन की पहली शिक्षा हमने पाई है
जिसके आँचल में पीड़ा से लड़ने की ताकत आई है
बिना किसी कलम दवात के दिया हमे है विद्यादान
 माता रूपी प्रथम गुरु को प्रातः काल करूँ प्रणाम

फिर मैं नमन करूँ पिता को जो हैं मेरे पालनहार
हाथ पकड़ अपने पैरों  पर चलना सिखलाया
ठोकर खाकर गिरने पर उत्साह बढ़ाया
उनका मेरे जीवन पर है अगणित उपकार

माता पिता सभी गुरुजन हैं मेरे शिक्षक, मेरे गुरुवर
लेकर इनसे शिक्षण मैंने पहचाना दुनिया के स्वर
फिर मेरे प्यारे शिक्षक गण उन्हें नमन मैं करती हूँ
उनके दिए ज्ञान से हर पल झोली अपनी भरती हूँ  

मैंने तो सीखा है नन्हें बच्चों से भी अनुपम ज्ञान की बात
नन्हें गुरु देते हैं मुझको टेक्नोलॉजी की सौगात
मेरे गुरु धरती आकाश और हैं चांद-सितारे
नदियाँ लता वृक्ष देते हैं मुझको शिक्षण प्यारे-प्यारे

इन सब से भी शिक्षा लेकर आज चली जीवन पथ पर
मेरे प्यारे छोटे बड़े सभी गुरु जन करती हूँ उन्हें नमन
मेरी श्रद्धा के फूल निछावर मेरे गुरुवर को है वंदन
मेरे गुरुवर के चरणों में है मेरा शत-शत बार नमन

एक बार एक दिन नही मेरी पूजा हर दिन होगी
अपने सभी गुरु जन को है मेरा नमन वन्दन
 एक दिन का बन्धन नहीं हर पल हर दिन
 क्यों ना करूँ मैं मेरे गुरु का हर दिन पूजन अभिनन्दन

           ✍️ निर्मला कर्ण ( राँची, झारखण्ड )

* गुरु को बारम्बार प्रणाम *


जीवन में मिठास गुरु से होए,

बिन गुरु जीवन कटु फल सा होए।

गुरु के उपकार,

भला शब्दों में कहाँ बयां होते हैं।

प्रथम गुरु हमारे माँ-बाप होते हैं,

जो हमें ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाते हैं। 

हमें बोलना सीखाते हैं।

हमारे द्वितीय गुरु होते हैं हमारे शिक्षक,

हम इनकी जितनी महिमा गाए उतना कम है।

अंधेरे मन में ज्ञान का दीपक जो जलाऐ वो गुरु है।

कठिनाई से भरी जिन्दगी को सरल बनाए वो गुरु है।

गुरु बिन ज्ञान कहाँ, उसके ज्ञान का ना अंत यहाँ।

आखिर तट पर बैठे-बैठे कब तक तू सोचता जाएगा।

गुरु के ज्ञान के सागर में जब तक डूबकी नहीं लगाएगा।

तब तक ज्ञान रत्न तुझे नही मिल पाएगा।

एक हमारे माँ-बाप और दूसरा गुरु ही तो है,

जो हमारे लिए नेकी कर दरिया में डाल देते है।

बंज़र पड़े हमारे जीवन में खुशियों की फसल उगाते है।

एक गुरु ही तो है जो नेक राह पर चलाता है,

अच्छे-बुरे का फर्क बतलाता है।

हे ! गुरुवर आपको मेरा नमन हैं बारम्बार।

आपने अपने ज्ञान के वेग से 

हमारे उजड़े हुए उपवन को पुष्पित कर दिया।

संसार में हमें हमारा अस्तित्व बताया।

सबके साथ मिल जुलकर रहना सिखाया।

धर्म, वृद्धि, सेवा, तप, दान, 

सब आपसे आता यह ज्ञान।

गुरु आप ना होते तो हम होते गुमनाम,

हमारे ज्ञान के चक्षु को खोलने के लिए,

आपको हमारा बारम्बार प्रणाम।


          ✍ निर्मला सिन्हा ( राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़ )


शुक्रवार, जुलाई 23, 2021

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह के राष्ट्रीय स्तरीय ऑनलाइन मुहावरा आधारित साहित्यिक महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार 'पुनीत रचनात्मक ज्योति' सम्मान से सम्मानित।

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा हिंदी मुहावरों की विशेषता तथा सुन्दरता दर्शाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन "मुहावरा आधारित साहित्यिक महोत्सव" का आयोजन किया गया। जिसका विषय 'ऐच्छिक चयनित मुहावरा' रखा गया। इस महोत्सव में देश के अलग-अलग राज्यों के रचनाकारों ने भाग लिया तथा एक से बढ़कर एक मुहावरों पर आधारित अपनी अनुपम रचनाओं को प्रस्तुत कर मंच पर अपनी रचनात्मक प्रतिभा को बखूबी प्रदर्शित किया। इस महोत्सव में निर्मला कर्ण (राँची, झारखण्ड) और संध्या शर्मा (मोहाली, पंजाब) की मुहावरों से सुसज्जित और अलंकृत रचनाओं ने सभी का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। इस महोत्सव में सम्मिलित सभी प्रतिभागी रचनाकार शख्सियतों को ऑनलाइन "पुनीत रचनात्मक ज्योति" सम्मान देकर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर समूह के संस्थापक एवं अध्यक्ष पुनीत कुमार जी ने महोत्सव में प्रस्तुत की गई रचनाकारों की रचनाओं पर अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देकर रचनाकारों का मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन किया और कहा कि "पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह" इसी तरह आगे भी ऑनलाइन 'साहित्यिक महोत्सवों के माध्यम से रचनाकारों को अपनी रचनात्मकता दिखाने का अवसर प्रदान करता रहेगा तथा रचनाकारों को सम्मानित करके उनका उत्साहवर्धन करता रहेगा। इस महोत्सव में उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करके समूह की शोभा बढ़ाने वालों में प्रमुख नाम मंजू शर्मा, प्रतिभा तिवारी, संगीता सिंघल विभु, डॉ. उमा सिंह बघेल, अनुपमा तोषनीवाल, डाॅ. ऋतु नागर, संध्या शर्मा, दीप्ति श्रीवास्तव खरे, डाॅ. सरला सिंह "स्निग्धा", चंचल जैन, कुसुम अशोक सुराणा, हरप्रीत कौर, भारती अग्रवाल, सुनीला गुप्ता, निर्मला सिन्हा, निर्मला कर्ण, मीता लुनिवाल रचनाकारों के रहे।

मंगलवार, जुलाई 20, 2021

* एक और एक ग्यारह *

 आओ मिलकर हम बहा दे,
 सच्चाई की एक धारा।
 एक दूजे का साथ निभाए,
 एक और एक ग्यारह।

 चांद अकेला काफी है लेकिन,
 संग रहे तारे तो
 सौरमंडल नजर गई तो लगता कितना प्यारा।
 एक और एक ग्यारह।

 पंछी से सीखा जाता,
 उड़ना आगे बढ़ते जाना।
 पंक्तिबद्द होकर चले,
अच्छादित आकाश सारा।
एक और एक ग्यारह।

 एकाकी को नहीं मिलती मंजिल अकेले चल के,
 संगठन और शक्ति का अंदाज ही है न्यारा।
 एक और एक ग्यारह।

 समाज के साथ रहकर ही सुंदर स्वरूप बनता है,
 अकेला चना भाड़ ना झोंके उल्टा लगता खारा।
 एक और एक ग्यारह।

            ✍️ संगीता सिंघल विभु ( पीलीभीत, उत्तर प्रदेश )

* तेरा आना *

ठुमक ठुमक कर तेरा यूँ चलना,
पल-पल नूपुर की ध्वनि का यूँ बजना,
घर आंगन को हैं महकाता।
बन मेरी "आंखों का तारा"
मेरी सांसों में है तू बस जाता।

तेरी तुतली-तुतली बातों पर, 
मन मेरा सदैव है मुस्काता;
बस देख देख कर ही तुझको,
झंकृत मेरा चितवन हो जाता;
बनकर घर में सबकी "आंखों का तारा"
ना जाने तू कैसे सभी को मोहित कर जाता।

ओझल जो एक पल तू हो जाता,
जीना सबका दुश्वार हो जाता;
तेरा रूठना, जिद करना,
फिर प्यार से मेरा आलिंगन कर लेना,
दोनों जहां की खुशियां, मुझको है दे जाता;
बन हम सबकी "आंखों का तारा"
घर आंगन सबको महकाता।

देख देखकर तुझको,
पुलकित, हर्षित हो जाते हैं;
सुन तेरी किलकारियों की गूंज,
हर दिन दिवाली बन जाती हैं;
मुख से सुन तेरे मां,
पल-पल निहाल हो जाती हूँ;
गोद में आकर जब तू बैठता,
अपनत्व के एहसास से भर उठती हूँ;
है तू मेरी "आंखों का तारा"
तुझ बिन जीना नहीं मुझे गंवारा।

बलिहारी जाऊं मैं तुझ पर,
मिले ईश्वर का हर पल आशीष तुझे,
बस यही विनम्र प्रार्थना पल पल मैं कर जाती हूँ।
मिले जहां की सारी खुशियां तुझे
यही आशीष सुबह शाम तुझ पर लुटाती हूँ।

       ✍️ अनुपमा तोषनीवाल ( कोलकाता, पश्चिम बंगाल )




* एकता में शक्ति *


 
उठो ! नौजवान, जाग उठो ! तुम,
 देश की खातिर आगे आओ,
 भूल भेदभाव की बातों को,
 मानवता का सार पढ़ाओ,
 कदम बढ़ाओ,
 एक और एक ग्यारह हो जाओ,
 चल रही नफरत की आंधी,
 उस आंधी को शांत कराओ,
 बिछड़ते दिलों में अखंडता का दीप जलाओ,
 भिन्न धर्म है भिन्न प्रांत हैं, भाषाएं, वेशभूषा भिन्न,
 किंतु लहू का रंग एक है,
 बूंद-बूंद से सागर बनता,
 एक-एक मोती से माला,
 दुश्मन खड़ा सरहद पर,
 विचारों की लड़ाई में ,
 तोड़ रहा हमें आपस में उलझा कर,
 है इतिहास गवाह कि जब-जब हम विलग हुए हैं,
 गुलामी में कैद हुए,
 मत तोड़ो मोती की माला ,
 अपने और अपनों की खातिर ,
 एक और एक ग्यारह हो जाओ,
 सबको समान अधिकार मिले ,
 शांति और सद्भावना का सबके मन में दीप जलाओ, 
 हम सब एक ही जगदीश्वर के बंदे,
 है मातृभूमि सुंदर परिवेश,
 एक नया विश्वास जगाओ, 
 मिलकर नये कीर्तिमान बनाओ,
 एक और एक ग्यारह हो जाओ।

                        ✍️ डॉ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )


* सपने टूटना *

जिंदगी की राहों पर चलते हुए हमें आंखें और कान खुले रखने चाहिए क्योंकि बुरा वक्त कब आ जाए किसी को कुछ पता नहीं, वह कब हमारे होठों की हंसी चुरा ले, आंखों में छाई खुशियां छीन ले किसी को नहीं मालूम।
                           मां-बाप सोचते हैं बुढ़ापे का सहारा हमारा बेटा है, वह अंधे की लाठी है। बच्चों की भोली बातों पर जिनकी आंखें मुस्काती हैं, जो आंखें बच्चों का चेहरा पढ़ लेती हैं, जिनकी उपस्थिति से मां-बाप की खुशियों में चार चांद लग जाते हैं, वही बच्चे उनके लिए एक दिन ईद का चांद हो जाते हैं माता-पिता आकाश पाताल एक कर देते हैं उन्हें अच्छी शिक्षा दीक्षा देने में परंतु बच्चे जिस दिन अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं माता-पिता को दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं। माता-पिता के चेहरे मुरझा जाते हैं, सपने टूट जाते हैं, सर पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है।
                          पिता का यह सपना कि एक दिन एक और एक मिलकर ग्यारह होंगे, बेटा कंधे से कंधा मिलाकर सहारा बनेगा, धूल में मिल जाता है।
जिसके जन्म पर वे फूले नहीं समाए थे, जिसे खुश रखने में जिंदगी की सारी कमाई लुटा दी वही एक दिन उनसे नजरें फेर लेते हैं। बूढ़ी मां की आंखें रास्ता देखते-देखते पथरा जाती हैं, अखियां दिन रात बरसती है, चेहरे पर दुख के बादल छा जाते हैं पर बेटे मां-बाप की ओर पलट कर देखते नही। मां-बाप की आंखें खुलती हैं जब घर के चिराग से ही घर को आग लग जाती है परंतु अब पानी पीटने से क्या फायदा ?

                                     ✍️   संध्या शर्मा ( मोहाली, पंजाब )

* मुहावरों की पटरी पर जीवन की गाड़ी *


हिंदी मुहावरों की भी है अजब-गजब दुनिया,
कितनी प्यारी कितनी न्यारी है यह दुनिया।
कभी राधा नौ मन तेल के बिना नही नाचती,
तो कभी कानों में तेल डाल कर बैठ जाती।

 दिल खुश हुआ तो गुलछर्रे उड़ा लिया,
 चैन की बंशी बजाते हुए इलाके की खाक भी छान लिया।
 पेट में चूहे कूदने पर हाथ पाँव फूल जाते हैं,
 झख मारकर लौटकर बुद्धू घर को वापस आते हैं।

हाय ! यह कैसी उल्टी गंगा बह रही,
अक्ल के दुश्मन चांद पर थूकने की कोशिश कर रहे।
बगुला भगत की पांचों उंगलियां घी में हैं  
जो मासूम लोगों को,
नाको चने चबवा कर दिन में तारे दिखा रहे हैं।

आंख के तारे को हाय यह कैसा रोग लग गया,
मूंग दल रहा जन्मदाता की छाती पर और आँखे दिखा रहा है।
अपना उल्लू सीधा करने को गड़े मुर्दे भी उखाड़ रहा है।
जहाँ दाल नहीं गलती पीठ दिखाकर भाग रहा है।

अपने मुंह मियां मिट्ठू बने बेटे के सम्मुख,
जहर का घूँट पीकर दिन-रात आँखों में काट रहे हैं।
अँगारे उगलती उसकी आँखों के सम्मुख,
पीठ दिखा अपना सा मुंह लेकर रह जा रहे हैं |

आज की कलयुगी संतान माता-पिता को चकमा दे,
सब्जबाग दिखला उनकी सम्पत्ति पर गुलछर्रे उड़ा रही है।
शर्म से पानी-पानी माता-पिता की जोड़ी भीगी बिल्ली बन,
प्रलय ढाते सन्तान के सम्मुख मुँह छुपा रही है।

जिसके जन्म पर घी के दिए जलाए थे।
उसी की आँखों में खटकने लगे,
रिश्ते तार-तार हुए जनक को आँखे दिखाने लगे।  
जिसे देख फूला न समाता आकाश चूमने की तमन्ना की जिसके लिए,
उसी के आग बबूला होने पर आँखें पथरा गईं हैं अभी।

सोचा था आँखों का तारा जीवन में चार चांद लगाएगा,
परंतु आँखे पथरा गई जिंदगी अजीर्ण हो गई।
इस चकमेबाज, अक्ल के दुश्मन, चिकने घड़े के कारण
जीवन से खुशी ईद का चांद हो गई।

हिन्दी मुहावरों की पटरी पर जीवन की गाड़ी,
चल रही हिचकोले ले खाक छाने सवारी।
अँकुश रखने को अंग-अंग मुस्काती प्रलय है ढा रही,
रंग-भंग करने को आपे से बाहर हो बिजली चमका रही।

                                        ✍️ निर्मला कर्ण ( राँची, झारखण्ड )



* गरीब के सपने *


कई रातें हो गई सोच-सोचकर,

बूढ़ी अंखियों को नींद ना आई।

घर बैठी जवान लड़की,

हाय ! हाथ पीले करने की चिंता खाई।   

कौन करेगा इस अभागन के हाथ पीले, 

गरीबी ने हैं उसे खाया।   

सुना है ! साहूकार खेत को गिरवी रखकर, 

बड़ी रकम दे रहा है।        

शायद उस रकम से,

उसकी बेटी के हो जाए हाथ पीले।                                    

और रही जो बाकी चीजें,

सोच रहा है वह कि घर में रखें पुराने गहनों को बेच,

नए गहने बनवा लेगा।                               

सारी रात चिंता खाए,

गरीब बूढ़ी अंखियों को कैसे नींद आए ?

जब तक हाथ पीले ना कर दे अपनी जवान बेटी के,              

वह तब तक चैन कैसे पाएं।

लाल चुनर, झुमके, पायल, माथे पर बिंदिया,

और हरी-हरी चूड़ियों से सजी संवरी नई दुल्हन सी,

रोज देखता है वह अपने सपनें में अपनी बिटिया को।            

कब होंगे उस गरीब के सपने पूरे ?

यह सोच-सोच कर जी घबराता है उसका।  

काश ! कर दे वह कन्या दान और पा ले इस जन्म से मुक्ति......।                                     

               ✍️  निर्मला सिन्हा ( राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़ ) 




* विवाह *

हाथ पीले करना lucky draw सा,
लग गया तो जीवन glow सा,
या फिर जीवन नर्क सा,
जीवित-मृत देह में, कहाँ कोई फर्क सा।


जीवन जब पीला पड़ता,

पिता तब पुत्री का घर भरता,

कुछ कन्या चढ़ती सूली पर,

कुछ अल्प उम्र में अर्थी पर।


पीला हाथ है बस एक सपना,

रंग-बिरंगा हो घर अपना,

पिता संजोता सपने लाख,

जीवन अपना कर देता खाक।


बचपन से ही कन्या सुनती,

भविष्य की गलती की कटुता ढोती,

ज्यादा पढ़ना अपवाद तो,

ना पढ़े तो जीवन श्राप।


महँगा बड़ा है वर यहाँ,

मोल भाव और छल यहाँ ,

गुण-अवगुण कौन निहारें,

सब को बस "अर्थ" ही प्यारे।


पीले हाथ की लगती बोली,

पीली-पीली सजती डोली,

पीला पड़ जाता घर-आँगन 

बाबुल छोड़ जब जाती, घर साजन।


जीवन अपना दांव लगाती,

हार-जीत सम मानकर जाती,

"अनिश्चित" पथ बढ़ जाती,

"हाथ पीले" जब कन्या करती।


✍️ मंजू शर्मा ( सूरत, गुजरात )





* गिरगिट की तरह रंग बदलना *

 

गिरगिट की तरह रंग बदल रहे,

किस राह पर इंसान चल रहे।


देख मन घबरा रहा,

कैसा समय आ रहा,

इंसान-इंसान को मार रहा,

स्नेह ममता के रूप बदल रहे,

गिरगिट की तरह रंग बदल रहे।


ऋतुएं भी रंग बदलने लगी,

प्रकृति इंसान पर हंसने लगी,

मन में नफरत पनपने लगी,

नकाब में चेहरे छल रहे,

गिरगिट की तरह रंग बदल रहे।


सूर्य प्रचंड रूप दिखा रहा,

क्षितिज का रंग फीका रहा,

पहाड़ भी कहां टिका रहा,

उपजाऊ में, बंजर के दखल रहे,

गिरगिट की तरह रंग बदल रहे।


आदमी कर रहा प्रकृति पर प्रहार,

सृष्टि को सहनी पड़ रही मार,

कहीं भूकंप तो कहीं बाढ़,

स्वयं भी इंसान बिलख रहे,

गिरगिट की तरह रंग बदल रहे। 


नदियां सीमाएं तोड़ रही,

प्रलय से नाता जोड़ रही,

बादलों में फटने की होड़ लग रही,

इंसान स्वयं को खुदा समझ रहे

गिरगिट की तरह रंग बदल रहे।

              

              ✍️ सुनीला गुप्ता ( सीकर, राजस्थान )


* चादर देखकर पांव पसारना *

चादर देखकर पांव पसारना

अपनी हैसियत का ध्यान रखना।


माना जीवन बड़ा कठिन है

संयम से चलना जीवन नियम है

अपनी इच्छा का मोल समझो

पूर्ण करने की हिम्मत रखो।


अपने से ऊपर मत देखो

नीचे देख कर धैर्य रखो

चांद तारे किसी को नहीं मिलते

धरती पर ही भवन बनते।


आकांक्षा की सीमा नही होती

पूर्ण की शक्ति सब में नहीं होती

सुख दुख जीवन का रेला

एक आता दूसरा जाता झमेला।


जीवन एक तपस्या है

ज्ञानजोत एक समस्या है

मिलती जिसको है संतुष्टि

उसका जीवन व्यवस्था है।


जिसके पास अपार संपत्ति

जाना है उसको भी खाली

फिर काहे की हाहाकारी

रहना हमेशा सदाचारी।


जो धैर्य संतोष से चलता

जीवन उसका निरन्तर चलता

भारती चादर जितने पांव पसारे

जीवन सौंदर्य वही संवारे।

              ✍️ भारती अग्रवाल ( नोएडा, उत्तर प्रदेश )







रविवार, जुलाई 18, 2021

* तपस्या *

         एक तपस्या है मानव जीवन जीना,
         अपना कर्म करना और जूझ कर मरना।
         मानव करता तप कुछ अपूर्व  रचने को,
       जीवन नैया के भँवर से पार उतरने को।
      चाहे कितने हों काँटे या राह में आए बाधाएँ,
     कठिन  तपस्या से वो सब दूर  हो जाएँ।
     अगर जाने-अनजाने कहीं तुम पिछड़ जाओ,
   उस राह की धूल में तुम गम न कभी करना। 
     एक तपस्या है मानव जीवन को जीना,
    अपना कर्म करना और जूझ कर मरना।
    मानव जीवन कोई तपस्या से कम नहीं,
   पग-पग पर हैं कठिनाइयां कोई गम नही।
    समस्याओं से जो पार उतर जाता है,
     सुखी जीवन का वरदान वही पाता है।
                         
                      ✍️ सावित्री मिश्रा ( झारसुगुड़ा, ओड़िशा ) 






( ** घर ** )

'घर' एक सुकून, एक एहसास,

'घर' आना क्या होता है?

पहले जो छोटी-छोटी बातें हमें परेशां करती थीं,

जब हम घर के ही हुआ करते थे,

आज जब घर से दूर हैं,

तो यही बातें हमें यादें बन सताती हैं,

'घर' के अहाते में पांव रखते ही ,

वो बचपन की खुश्बू का झोंका ,

वो बाबा का पुरानी कहानी सुनाना,

सुनकर हम सबका मुस्कुराना,

मां का दौड़ कर आना ,आकर लिपट जाना,

फिर तरह-तरह के व्यंजन बनाना,

चाय की खुश्बू का रसोई तक खींच लेजाना,

दरवाजे पर लगी घंटी से भांप लेना,

कि दरवाजे पर किसका हुआ है आना,

काउच पर पैर पसारे बैठना,

 और दूर कमरे में, टीवी में न्यूज़ का चलना,

वो घर की अलमारी में ,

पुरानी तस्वीरों का मिलना,

वो घर में लगा, दाल में हींग का तड़का,

वो मां का हौले से, पूजा की घंटी बजाना,

वो खिड़की से आती सुबह की धूप,

और पेड़ों से आती कोयल की कूक,

वो करीने से लगी पुरानी किताबें,

वो धीमे से बजता रहता ट्रांज़िस्टर,

वो दूर कहीं फेरीवाले की आवाज़ें,

पैसा, करियर, सफलता, प्यार,

मिल सकते है दोबारा,

पर 'घर' का एहसास इन सबसे परे है,

परदेस में बंजारों की तरह भले ही रह लें,

'घर' के संदूक में लिपटी वो यादें,

हमें 'घर' की ओर खींच ही लाती हैं........

               ‌‌✍️ डॉ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )


( ** जिंदगी **)


चार दिन की जिंदगी ये,

 रोते हुए आए थे, हंसते-हंसाते जाना है,

 चार चरणों में बटी ये जिंदगी,

 'बचपन' की मासूमियत में लिपटे हुए,

 न किसी बात की चिंता,

 ना किसी चीज की फ़िक्र,

 दोस्तों की अठखेलियां में बीत जाता है 'बचपन', 

'यौवन' की दहलीज पर रखते कदम, 

लाखों अरमानों को दिल में संजोए,

 बिंदास से आगे बढ़ाते हैं कदम,

'गृहस्थी' की दुनिया में रखते हैं पांव,

 जहां नई दुनिया की हसरतों में खो जाते कहीं,

 जोड़-भाग करते जरूरतों का,

 कहीं पूरा होता, छूट जाता कहीं,

 'बुढ़ापे' की ओर पांव बढ़ते धीरे-धीरे ,

जहां आज़ादी मिली, तन साथ देता कुछ कम है,

 हर चाहत के लिए दूर तलक देखतें हैं,

 है जीवन खेल भी अजब सा,

 वक्त पल भर के लिए,

कभी रुकता नहीं है,

है दुर्गम पथ और दूर तलक जाना है,

 वक्त कैसा भी हो ,सिर्फ हंसना-हंसाना है,

 ना खुद रोना ,न दूजे को रुलाना है,

 जख्मों पर हौले से मरहम लगाना है,

 चार दिन की ज़िंदगी ये.....

 जियो इस क़दर कि ज़िंदगी हमें नहीं,

 हम ज़िंदगी को मिले हो,

 जिंदगी का हंसी मकसद यही है,

 प्यार दो ,प्यार लो, प्यार बांटते चलो,

 चार दिन की ज़िंदगी ये........

                       ✍️ डॉ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )

( ** छत ** )


ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं की 'छत' नहीं होती ,

 हो बालकनियों में कैद,

 छत के नज़ारों का लुत्फ अब भूल रहे,      

 जिस छत को अहं था छत होने का,

 मंजिलें बनती गई, छत फर्श बन गई,

 याद आती है बचपन की वो छत,

 जहां ढेरों सपने संजोए,

 बारिश की मीठी फुहारों में,

 छतों पर घूमते थे हम,

छत पर मस्ती भरी शामें बिताना,

चाय की चुस्कियों के संग,

धीमे से छुपे राजों को खोलना,

रूठ जाना कहीं, तो कहीं मनाना ,

आचार की बरनियों से चुपके से आचार खाना,

मां का वह वड़ियां, पापड़ सुखाना,

दोस्ती कर चांद से, सप्तर्षि तारामंडल को ढूंढना,

पतंगों को उड़ने-उड़ाने का सिलसिला,

अपनी छत से, पड़ोसियों की छत से दोस्ती करना,

वो सखियों-सहेलियों से गप्पे मारना,

याद आ गई वो 'छत पर पहली मुलाकात, 

दिल की तरंगों को छेड़ गई फिर से,

अब तो तारे भी थोड़ा धीमे टिमटिमाते हैं,

टीवी पर उलझे बच्चे, अब छत पर कहां आते हैं,

आज कहीं 'छत' खो सी रही है,

आज के इस दौर में,

'छत' टपकती किसी की है और भीगता कोई है,

'छत' बनाई जिसने,

'छत' ढूंढता वही है,

ढूंढती हूं स्मृतियों में......

खोई हुई वो बस्ती, वो गलियां,

जहां चलते-चलते,

 मिल जाती 'वो कीमती छत'.........

                ✍️ डाॅ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )


( ** वादे ** )

कुछ वादे 'बिन कहे' ही 'टूट' जाते हैं,

बचपन से शुरू होते, ये छोटे-छोटे वादे, 

सखियों के साथ ढेरो सपने देखते हुए,

न जाने कहां-कहां घूमने के वादे,

साथ रहने के वादे, कभी न दूर जाने के वादे,

विद्यालय छूटने के बाद दुबारा मिलने के वादे,

सखियों के विवाह में जाने के वादे,

वक्त के साथ 'भूल की धूल' में समा जाते हैं,

जीवन में कितने वादे ऐसे होते हैं,

जिन्हे हम मां-बाबा की आंखों में देखते हैं,

एक बार परदेस जाकर , लौटकर आने के वादे,

उन्हें रोज़ फोन करने के वादे,

वो इंतज़ार करते रहते हैं और वादे टूट.....

शायद ही वो कभी पूरे होते हैं,

जाने-अंजाने हम वादे करते हैं,वो टूटते जाते हैं,

याद आता है मुझे भी वो वादा,

जो किया था मैंने भी,अपनी प्यारी सखी के साथ,

जब उसने कागज़ की गुड़िया, बनाकर दी थी मेरे हाथ,

परेशां मत हो। एक दिन नन्ही सी परी, थमेगी तेरा हाथ,

मैं भावविह्वल सी कर बैठी वादा उससे,

कि जिस दिन ये सपना पूरा होगा मेरा,

पहला फोन करूंगी तुझे "यार",

नन्ही परी जिस दिन आंचल में आई ,

सर्वस्व भूल मैं उसमे समाई,

उसका नंबर जाने, कब कहां खो गया,

जाने वो वादा कब टूट गया,

जाने-अंजाने कुछ वादे, बिन कहे ही टूट जाते हैं,

कुछ हमारे, हमसे ही छूट जाते हैं..........

                    ✍️ डाॅ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )



( ** गृहिणी ** )

गृहिणी तो समाज है, 

गृहिणी धर्म लकीर,
गृहिणी मर्यादा बने,

लांघे तो कटे तकदीर।


गृहिणी आशीर्वाद है,

प्रभुता रखे हर शीश,

गृहिणी पालनहार है,

अभिनन्दनीय हर रीत।


गृहिणी कंचन सी पवित्र,

जाने अंकुश की रीत,

गृहिणी जनती पुरुष को,

फिर भी सम भयभीत।


गृहिणी सूली पर चढ़ी,

अपनो जी ही रीत,

गृहिणी अग्नि पर चढ़ी,

आदा की रघुकुल प्रीत।


गृहिणी लगी चौसर पर,

धर्म राज के राज,

उसके वस्त्र हरण पर,

अन्धा हुआ समाज।


गृहिणी लड़ी मैदान में,

 तोड़ी झूठी रीत,

अंग्रेजों को कटती,

शेष रहे भयभीत।


गृहिणी जलती आग सी,

जब तक भाये प्रीत,

मन मक्कम कर तोड़ दे,

तो रचदे वो नई रीत ।


गृहिणी निर्मल नीर से,

रंग दो अपने रंग,

मानो  तो वरदान है,

हर पल उसके संग।   


✍️ मंजू शर्मा ( सूरत , गुजरात )



पुनीत अनुपम ग्रुप द्वारा आयोजित ऑनलाइन स्नेह ध्येय सृजन महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम ग्रुप द्वारा लोगों को स्नेह के महत्व और विशेषता का अहसास करवाने के उद्देश्य से ऑनलाइन स्नेह ध्येय सृजन महोत्सव का आयोजन किया गया...