गुरुवार, अप्रैल 28, 2022

👨‍👩‍👧‍👧 फरिश्ते जैसे नाना जी 👨‍👩‍👧‍👧

कुछ फरिश्ते जीवन में रिश्ते बन के आते हैं। हमें पता भी नही होता और वो हमारे आस-पास होकर हमे बुरी बलाओं से बचाते रहते हैं। ऐसी ही एक घटना याद आती है । हम हर रविवार नाना जी के घर जाया करते थे। नाना जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। उनको कैंपस में ही घर मिला था। आगे से लेकर पीछे तक बगीचा ही बगीचा था। आम, अमरूद, अनार, शरीफा, बेल, केला, जामुन, कटहल, सहजन, कितने ही किस्म के तो पेड़ थे। हम दोनो बहनों के लिए नाना जी ने बगीचे में ही झूला डाल रखा था। जब हम वहां जाते हमारा अधिकांश समय बगीचे में ही गुजरता। नाना जी के घर में सामने की तरफ लॉन में बड़े ही मनमोहक फूल खिले रहते थे। जिनमें मेरा पसंदीदा था हजारी बेला। जब भी नानी जी फूलों को चुन के माला बनाया करती थी, मैं उनके पास ही बैठती थी। एक वाकया याद आता है, मैं और मेरी बहन दोनों नाना जी के बगीचे में खेल रहे थे। मैं मात्र 2 वर्ष की थी और मेरी बहन मुझसे डेढ़ वर्ष बड़ी। मेरी बहन ने खेल-खेल में मेरे दोनों नाक के छेद में बेला की कली घुसेड़ दी और वह कली नासिका द्वार में फंस गई। मुझसे सांस लेना भी नही हो रहा था। घर के सभी लोग परेशान हो गए। जितना प्रयत्न किया जाता कली उतनी ही भीतर घुसती जाती। मेरे मामा जो स्वयं डॉक्टर थे, ने इंजेक्शन सीरिंज से निकालने का प्रयास किया वह भी बेकार हो गया। मेरी आँख से लगातार आँसू बह रहे थे। मैं रो रही थी। नाना जी सोफे पर बैठे सब देख रहे थे। सब मुझेअस्पताल ले जाने की तैयारी करने लगे। सब घबरा रहे थे, कि, पता नहीं डॉक्टर लोग ऑपरेशन करेंगे या कैसे निकालेंगे। सब लोग डर रहे थे। उसी समय नाना जी उठ कर बोले, रो मत लाडो मैं अभी ठीक करता हूँ। उन्होंने मुझे गोद में ले लिया हाथ में ढेर सारी सुरती मलकर मेरी नाक में भर दिया और मेरा मुँह कस कर बंद कर दिया। फिर उन्होंने कहा ज़ोर से सांस लो। सांस लेते ही सुरती की तेज गन्ध नाक में गई और बड़ी जोर की छींक आई। दो या तीन छींकों में खून के साथ कलियां बाहर निकल गई । मेरी नाक और मुँह ठंडे पानी से धुलवाए गए। मुझे ठंडा शरबत पिलाया गया। और नाक पर ठंडी पट्टी रख दी गई। जब मैं बड़ी हुई माँ बनी तो सबने मुझे ये कहानी बताई। कभी-कभी मैं सोचती हूँ। उस समय मेरे नाना जी फरिश्ता बनकर आए थे, वो नहीं होते तो मैं भी नहीं होती। नाना जी ने सदैव मेरा मार्गदर्शन किया। वह मुझे बहुत प्यार करते थे। मैं उनकी लाडो थी। जब मैं बड़ी हुई मुझे नाना जी ने जीवन के आदर्शों के बारे में बताया। मुझे नाना जी से काफी कुछ सीखने को मिला। नाना जी हमेशा ही लड़कियों को पढ़ाने और आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया करते थे आज मैं जो भी हूँ और जैसी हूूँ उसमें मेरे फरिश्ते जैसे नाना जी का अविस्मरणीय योगदान है।

                       ✍️ प्राप्ति सिंह ( हैदराबाद, तेलंगाना )




👨‍👩‍👧‍👧 रिश्ते की डोर 👨‍👩‍👧‍👧








कितनी दूरियां थी 
दरमियां हमारे
तुम मिले हमसे
तुम्हारे हाथों की 
छूअन महसूस की 
सगाई की अँगूठी के साथ
तब से ही एक रिश्ता
जुड़ तो गया था तुमसे

मगर जब शुरू हुआ
सिलसिला
बातों का हमारे बीच
तब समझ आया
ये तो है जन्म-जन्मांतर के
रिश्ते की डोर 
जो अब रूह से
रूह तक पहुँची है

करती थी तुम्हारे नाम से श्रृंगार
मगर जाने क्यूँ कुछ तो
कमी सी रह ही जाती थी
जब सजाया तुमने मुझे
इस चुटकी भर सिन्दूर से
तब हुआ पूरा मेरा ये 
सोलह श्रृंगार....
.....तब कहीं जा कर समझा तुम बिन मैं ही नही
...........मेरा ये श्रृंगार भी अधूरा ही है 

✍️ संध्या रामप्रीत ( पुणे, महाराष्ट्र )




बुधवार, अप्रैल 27, 2022

👨‍👩‍👧‍👧 सुंदर होते हैं रिश्ते 👨‍👩‍👧‍👧






जीवन की डोर से बंधे रिश्ते

कभी हंसाते कभी रूलाते

कभी बहलाते कभी समझाते

अपनत्व से भरे सुंदर रिश्ते


सृष्टि के हर हिस्से में मौजूद है

रिश्तों के बिन कहाँ जीवन है

धरती पर पर्वत, नदी संग किनारे

मिट्टी के गर्भ में पलते सुंदर रिश्ते


खुशियों का मोल तब, जब हो अपने

दुखों के अंधियारे कौन दूर करें

सफलता के शिखर पर अकेले तुम

अपनों के साये में रहते सुंदर रिश्ते


आशा और निराशा के दोराहे पर

साथ तुम्हारे चलते, राह दिखाते

पूंजी, शोहरत चाहे जितनी पाओ

हर धन-दौलत से सुंदर होते रिश्ते


मानव का मानव से बंधता संबंध

गुरु, मित्र, मात-पिता, भाई-बहन

खुद का खुद से है एक अटूट संबंध

प्रत्येक भाव में सुंदर होते हैं रिश्ते 


✍️ रश्मि पोखरियाल 'मृदुलिका' ( देहरादून, उत्तराखंड )

       




👨‍👩‍👧‍👧 रिश्तें खास होते हैं 👨‍👩‍👧‍👧








रिश्तें जो लफ़्ज़ों में बयां होते हैं,
वो दिल के आस-पास होते हैं,
जरा सी नमी में फलते-फूलते हैं,
जरा सी धूप में मुरझाते हैं,
ये मयूर पंख से रिश्तें, हरे मन की थकान,
करें जीवन सुगंधित, मिटे क्लेश, दे अभयदान।

रिश्तें जो आंखों-ही-आंखों में पलते हैं,
छुई-मुई से खिलते-सिमटते हैं,
आंधियों में जड़ से हिलते-डुलते हैं,
पर वक़्त-बेवक्त साथ निभाते हैं,
ये गुलाब से खिले रिश्तें, मुस्कुराएं जब कांटों पर, 
भूलें हृदय चुभन, टले बला, चहके जीवन।

रिश्तें जो ख़ामोश निगाहों में चमकते हैं,
अमावस में भी चाँदनी बिखेरते हैं,
अंधेरों को आँचल में समेटते हैं,
फ़रिश्ते सा जीवन में नूर भरते हैं,
ये केसर-क्यारी से रिश्तें, सुरभित करे तन-मन,
मिले दिल से दिल, सृजित करें यौवन-सपन।

    ✍️ कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई, महाराष्ट्र )

सोमवार, अप्रैल 25, 2022

👨‍👩‍👧‍👧 रिश्ते होते हैं फरिश्ते 👨‍👩‍👧‍👧






कुछ रिश्ते जीवन में फरिश्ते की तरह होते है
ऐसे रिश्तो को ही लोग मरने के बाद रोते हैं

कोई होता है जो आकर बन जाता है सहारा
जब बेजार बेकार हो हमारे भाग्य सोते है

फरिश्ते से रिश्तों के सहयोग के जिंदा हैं यहाँ
बीज तो काटने पड़ेंगे वही जो हम बोते है

ज़रा सी जिम्मेदारी आने के ड़र से दूरी बढ़ा लेते
हम सबसे पहले अपने खून के रिश्ते खोते है

जीवन भर औरों की बात मान अपनों से रूठे
कोई पूछे कि, बहकाने वाले के भी अपने होते है 


✍️ सुनीता सोलंकी 'मीना' ( मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश )

👨‍👩‍👧‍👧 अनजाना रिश्ता 👨‍👩‍👧‍👧

शर्मीली आसपास के घरों में छोटे बड़े काम कर अपना घर संभालती थी कुशल गृहिणी की तरह। अभी वह घर का काम निपटा रही थी। निक्की और चिंकी आंगन में खेल रहे थे। हल्की-हल्की रिमझिम बारिश का आनंद ले रहे थे। कागज की कश्तियां पानी में बहती देख झूम-झूम नाच रहे थे। राहत भरी ठंडक से खुश हो रहे थे। पड़ोस के बिल्डिंग में रहने वाले बच्चें भी साथ थे। प्यारी नन्ही गुंजन भी साथ खेल रही थी। कोई भेद नही था किसी के मन में। न कोई अमीर था, न गरीब। न ऊँच-नीच की दीवार। निर्मल प्रेमभरा दोस्ती का रिश्ता अनजाना जैसे बारिश तेज हुई, शर्मीली निक्की, चिंकी को घर के अंदर बुला लायी। तूफानी हवाएं तेज चलने लगी थी। काली आंधी से चारों ओर धूल ही धूल नजर आ रही थी। जोर-शोर से बिजली चमक रही थी। हल्का-हल्का अंधेरा छाने लगा था। गुंजन को शर्मीली घर छोड़ आई। गरज-गरज कर बादल बरसने लगे थे। और अनहोनी हुई। धड़ाड़ धूम। जोर से आवाज आयी और बाजूवाली बिल्डिंग की गैलरी लहलहाती गिर पड़ी। नन्ही गुंजन गैलरी में खड़ी, भयभीत हो आसपास देख रही थी। मलबा ही मलबा। भयाक्रांत चीखें। डरी-डरी, सहमी-सहमी, नन्ही गुंजन, निःशब्द खड़ी थी। शर्मीली का गुंजन के घर आना-जाना था। गुंजन की दादी जी उसे काम के लिए कई बार बुलाती थी। जब भी मेहमान आते, फुर्तीली शर्मीली के काम संभालने से वह निश्चिंत हो जाती। दादी जी भी उसका पूरा ख्याल रखती। खाना, बच्चों को कपड़े, उसे साड़ी देने के लिए कोइ न कोई  बहाना ढूंढती। मिठाई, बिस्कुट थैला भर-भर देती। हृदय से अमीर थे वे। सोच के भंवर से शर्मीली बाहर आई। मुसीबत में फंसे गुंजन के लिए उसने अपने आस-पास रहने वाले नौजवानों को पुकारा। भारी बारिश की परवाह किये बगैर दौड़े चले आये सब। बिल्डिंग के दूसरे माले पर ही था गुंजन का घर। नौजवानों ने गुंजन को आराम से सुरक्षित उतार लिया। दादा जी और दादी जी को भी। आज शर्मीली के घर गुंजन, उसके दादा जी, दादी जी की खूब आवभगत हो रही थी। साफ-सुथरी झोंपड़ी में शर्मीली प्यार से दाल भात खिला रही थी। पंच पकवानों से भी स्वाद। इंसानियत की महक से महकते इस रिश्तें में आत्मीयता का एहसास था। गुंजन को बचाने वाले फरिश्तों जैसे नौजवानों से जन्म-जन्म का स्नेहबंध बंध गया था।

                       

  ✍️ चंचल जैन ( मुंबई, महाराष्ट्र )



शुक्रवार, अप्रैल 22, 2022

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित ऑनलाइन संस्कार-अनुशासन साहित्यिक महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा संस्कार एवं अनुशासन के महत्व तथा उपयोगिता का अहसास लोगों को करवाने के उद्देश्य से ऑनलाइन 'संस्कार-अनुशासन साहित्यिक महोत्सव' का आयोजन किया गया। जिसका विषय 'संस्कार और अनुशासन का महत्व' रखा गया। इस महोत्सव में देश के अलग-अलग राज्यों के रचनाकारों ने भाग लिया। जिन्होंने दिए गए विषय पर आधारित एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट रचनाओं को प्रस्तुत कर ऑनलाइन 'संस्कार-अनुशासन साहित्यिक महोत्सव' की शोभा में चार चाँद लगा दिए और ऑनलाइन संस्कार-अनुशासन साहित्यिक महोत्सव को सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस महोत्सव के द्वारा समूह से जुड़कर पहली बार रचना प्रस्तुत करने वाले रचनाकारों ने समूह का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। महोत्सव में सम्मिलित सभी प्रतिभागी रचनाकार शख्सियतों को ऑनलाइन 'पुनीत संस्कार ज्योति' सम्मान देकर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर समूह के संस्थापक एवं अध्यक्ष पुनीत कुमार जी ने लोगों को संस्कार-अनुशासन की महत्वता बताते हुए अच्छे संस्कार अपनाने और अनुशासित जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने महोत्सव में प्रस्तुत की गई रचनाओं पर अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देकर रचनाकारों का मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन किया और सम्मान पाने वाले सभी प्रतिभागी रचनाकारों को उज्ज्वल साहित्यिक जीवन की शुभकामनाएं दी। इसके साथ ही उन्होंने रचनाकारों को आने वाले ऑनलाइन साहित्यिक महोत्सवों में अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए सादर आमंत्रित भी किया। इस महोत्सव में उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करके समूह की शोभा बढ़ाने वालों में प्रमुख नाम सुनीता सोलंकी 'मीना', कुसुम अशोक सुराणा, चंचल जैन, सुभाष सेमल्टी 'विपी', उर्वशी उपाध्याय 'प्रेरणा', ज्योति चौधरी, स्मिता चौहान, सीमा रानी प्रधान, सावित्री मिश्रा रचनाकारों के रहे।




गुरुवार, अप्रैल 21, 2022

🦋 संस्कार और अनुशासन 🦋

मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो संस्कारों से परिष्कृत होकर श्रेष्ठ बनता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है जो एक कुटुंब, समाज बना कर रहता है। कोई भी समाज उन्नत और सुशिक्षित तब होता है जब उसके आधार में संस्कार और अनुशासन होता हैं। मनुष्य की पहचान भी उसके संस्कार और अनुशासन से ही होती है, पशुओं आदि में अनुशासन और संस्कार नहीं देखने को मिलते हैं, इसलिए वह पशु हैं। पशु वृत्तियों के समान जीने वालों के जीवन को देखा जा सकता है कि संस्कार-अनुशासन विहीन होने पर उनका आचरण और जीवन कैसा होता है। वह मनुष्य भी पशु समान ही है जो संस्कार विहीन,आचार विहीन और केवल शारीरिक भोग आदि में संलिप्त हैं वह भी संस्कारों, अनुशासन और सिद्धांत को त्याग कर। पशु भी कुछ ऐसे लोगों से कुछ बेहतर ही होंगे। अनुशासन और संस्कारों से जीवन में स्वच्छ चरित्र, प्रखरता, बुद्धि, विवेक, ज्ञान प्राप्त होता है जीवन शैली में शुद्धता होने से आरोग्यता और संपन्नता मिलती है। जीवन स्वतंत्र किंतु नियमों अनुशासन और संस्कार से चले तो वह जीवन ही श्रेष्ठ होता है। ऐसे समाज में न तो कोई संघर्ष होता न ही किसी प्रकार का कोई अपराध ही होता है। आज वर्तमान समाज के लोग संस्कार और अनुशासन विहीन होते जा रहे हैं जिसके फल स्वरूप विभिन्न अपराधों में वृद्धि, महिलाओं के साथ अपराधों में वृद्धि हो रही है। ऐसे में आने वाली पीढ़ी दिशाविहीन, संस्कार विहीन, अनुशाननहीन हो जायेगी तो उसका क्या होगा यह आंकलन थोड़ा बहुत विवेक रखने वाला कर ही सकता है। महान लोग कुछ विशेष लेकर पैदा नहीं होते वे भी हमारे समाज से हम सभी के समान ही जन्म लेते हैं, किंतु उन महान लोगों ने अपने जीवन में संस्कारों से और अनुशासन से जीवन को जिया इसलिए वे अन्य लोगों से महान हुए। वर्तमान में भारतीय सेना को ही लें इतना अदम्य साहस, शौर्य वीरता ऐसे ही नहीं आती वे बहुत अनुशासन का पालन करते हैं। भारत में वैदिक काल में महान ऋषि हुए और इतिहास देखें तो उसमें महान लोग हुए हैं जिनके जीवन से आज भी सीखने को मिलता है उसी तरह श्री राम ऐसे ही मर्यादा पुरुषोत्तम नही बने, राणा प्रताप और लक्ष्मी बाई ऐसे ही नही श्रेष्ठ हुए। परिवार में संस्कार और अनुशासन न हो तो बच्चे अनुचित मार्ग और गलत आदतें अपना लेते हैं, घर-परिवार में बड़ों का अनादर करने लगते हैं, ऐसा व्यवहार अवनति का कारण बनता है। संस्कार और अनुशासन मनुष्य जीवन को श्रेष्ठता की ओर ले जाते हैं, जीवन की सार्थकता तभी है जब उसमें संस्कार और अनुशासन हो। "वास्तव में संस्कार वो ‘अस्थि मज्जा’ है जो विचारों के स्वस्थ और सकारात्मक निर्माण के लिए उत्तरदायी होता है।"

                      ✍️ सुभाष सेमल्टी ‘विपी’ ( देहरादून, उत्तराखंड )




🦋 संस्कार और अनुशासन का महत्व 🦋

आज रिया बहुत खुश थी उसको स्कॉलरशिप मिली थी उसे बाहर जाने का मौका मिला था अपनी योग्यता के बल पर। उसने घर पर जैसे ही खबर दी उसकी माँ ने मना कर दिया। "क्यों मां क्यों मना कर रही हैं आप ? भईया के समय तो आप बहुत खुश हुई थी और उनको भेजने को राजी हो गई थी। "रिया ने अपनी माँ से आश्चर्य से पूछा। "बेकार की बातें मत करो रिया, तुम लड़की हो कैसे भेज दूँ तुम्हें लोग क्या कहेंगे कि कैसा परिवार है कैसी लड़की है संस्कारहीन। और बाहर हम तो तुम्हारे साथ नहीं होंगे रात-बिरात कहीं आना-जाना पड़ा तो कैसे होगा। "रिया जायेगी" बाहर खड़े रिया के पिता बोले, सुनीता हम अपने ही बच्चों के लिए संस्कार और अनुशासन के अलग-अलग मापदंड बना रहे हैं सिर्फ़ इसलिए कि एक लड़का है और एक लड़की। जो संस्कार और अनुशासन की शिक्षा हम अपनी बेटियों को देते हैं अगर हम बेटों को भी वही सिखाए तो शायद हमारे समाज में एक बदलाव आए। अगर बेटी का देर सा आना उसके संस्कार और अनुशासन पर सवाल खड़ा करता है तो वह बेटों के लिए सही कैसे हो सकता है। जिस दिन हमारे समाज में संस्कार और अनुशासन की परिभाषा दोनों के लिए एक समान हो जाए तो उस दिन हमें एक संतुलित समाज मिल जाएगा। मैं पूरे समाज को तो नही सुधार सकता पर इस कोशिश में योगदान तो दे सकता हूँ। मेरे घर में संस्कार और अनुशासन का महत्व लड़का और लड़की दोनों के लिए एक समान होगा।

                              ✍️ स्मिता चौहान 
                           ( गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश )





🦋 संस्कार 🦋

भावी सुन्दर जीवन का जो बनता है आधार,
अच्छी बातों को अपनाना ही कहलाता संस्कार।

संस्कार होते है जीवन वृक्ष की शीतल छाँव,
पहुँच के जहाँ मिलती है हमें सुख की ठाँव।

गलत कदम हमें रखने से रोकते अनुशासन बन्ध,
जीवन उपवन मे फैलाते फूलों सी मधुर सुगंध। 

अपराध से मानवता के भाग्य हैं फूट रहे,
दया प्रेम का नाम नही केवल सब लूट रहे।

दुनिया का हर देश बना रहा है घातक हथियार,
हिंसा के यह घातक शस्त्र करते नर संहार। 

बच्चों को अब सिखाना है करना आपस में प्यार,
विश्व शांति का सपना तब ही तो होगा साकार।

समाज में हमे थामना होगा संस्कारों का हाथ,
तभी तो पूरे जग को मिलेगा खुशियों का साथ।

                   ✍️ सावित्री मिश्रा
                 ( झारसुगुड़ा, ओड़िशा )



बुधवार, अप्रैल 20, 2022

🦋 गुरु के दिए संस्कार 🦋

गुरु वंदन है अभिनंदन है, 
           गुरु ज्ञान नहीं है संबल है।
हो तड़प हमारे भीतर तब,
         गुरु के दिए संस्कार हमारा ही बल है।
जब मृगतृष्णा में भटके मन,
       तब दिशा दिया वह संयम है।

 जब जग के बंधन उलझा दे, 
      और हम भीतर से बिखरे हो। 
 जब किसी राह पर राही हो, 
         हर राह बंद ही दिखती हो। 
 ऐसे में कोई ज्योतिपुंज, 
       जो कहीं नजर आ जाए तब।
 समझो अपना वही लक्ष्य है, 
           सफल हुआ आराधन है।
 क्षीण हुई काया में भी, 
       अभिव्यक्त हुआ स्पंदन है।

गुरु वंदन है अभिनंदन है, 
          गुरु ज्ञान नहीं है संबल है।
 जब तड़प हमारे भीतर हो,
          गुरु के दिए संस्कार हमारा ही बल है।

          ✍️ उर्वशी उपाध्याय 'प्रेरणा'
             ( प्रयागराज, उत्तर प्रदेश )


          
        

🦋 आओ ! ऐसे संस्कार बना लें 🦋

सुनो ! चलो
प्रेमी
हो जाएं
नदियों के
पेड़ों के
पहाड़ों के
हवाओं के
धूप से उष्ण और
मिट्टी से सोंधे हो जाएं
आदमियत फिर बच जाए
कृतज्ञता रखे मन में
स्त्रियों और वनों के लिए
जरा सी वनवासियों से भी
तृप्त करें
वृद्ध मात-पिता को
सेवा सत्कार से
अवहेलना उपेक्षा
का त्याग करें
भय और मोह छोड़ दें
आओ ! ऐसे संस्कार बना लें हम
और मानव ही रह जाएं हम

     ✍️ ज्योति चौधरी 
    ( लातेहार, झारखंड )






🦋 सब तुम ही हो 🦋

तुम्हारी यात्रा में 
मैं एक पड़ाव हूँ 
मेरी यात्रा की मंजिल 
तुम ही हो।

मुझे तुमसे कोई 
शिकवा नहीं 
सबके रास्ते 
अलग-अलग हैं
मेरा रास्ता 
तुम ही हो।

रीत जगत की
मुश्किल बड़ी
क्या निभ पायेगी तुमसे 
तुमको निभाने होंगे
संस्कार मेरे
क्यूंकि रीति-रिवाज
सब तुम ही हो।

 ✍️ सीमा रानी प्रधान
 ( महासमुंद, छत्तीसगढ़ )




🦋 संस्कारों की थाती 🦋

संस्कारों की थाती लिए, मंज़िल की ओर बढ़े चलो।
जिंदगी का सफरनामा, अपनी कलम से खुद लिखो।
मुश्किल है राह मगर, हौसले की लौ जलाते चलो।
कोशिशों के बल पर राही‌, जीत की दास्तां खुद लिखो।

अटूट विश्वास, अथक प्रयास, कामयाबी का राज यही।
प्रकृति माँ के आंचल तले, सृष्टि का सृजन-संवर्धन सही।
सूरज से सीखो उदय-अस्ताचल का तंत्र-मंत्र।
बहती जलधारा से सीखो, गतिशीलता का गुरुमंत्र।

बुलबुला.. मानव-जीवन, पल में तोला, पल में मासा।
रब दी चौपट, खेल-खिलौना, कभी सीधा, कभी उलटा पासा।
संस्कारों की ले पोटली, बढ़ते जाना तू अनजान राह पर।
अनुशासन हो जीवन-संबल, नज़र टिकी हो ऊंची डगर पर।

उफनती लहरों पर हो सवार, लक्ष्य की ओर अग्रसर होना।
तूफानों से दो-दो हाथ कर, लक्ष्य की टोह तक पहुंचना।
कक्षा के अनुशासन से बंध कर, सूरज के चक्कर लगाना।
कठपुतली सी डोर थाम कर, रच्चणहारे का शुक्रिया करना।

               ✍️ कुसुम अशोक सुराणा
                        ( मुंबई, महाराष्ट्र )




🦋 संस्कार-संस्कृति बोझ ना समझ 🦋

संस्कार-संस्कृति बोझ ना समझ,
यही धरोहर हमारी यही रक्षा कवच।

अंहकार, संस्कार में फर्क है बहुत बड़ा,
दोनों के बीच इंसान ही ठगा सा खड़ा।

अंहकार दूसरों को झुकाकर खुश हुआ,
संस्कार खुद को झुकाकर खुश हुआ।

कोई संस्कार-संस्कृति जीवित न पृथक,
सहयोग, सद्भाव से निभे इसके अर्थक।

संस्कार है दया, धर्म, न्याय, नीति,
पालन करते रहें फैलने ना दें कुरीति।

हमारा समाज और ब्रह्माण्ड है मर्यादित,
स्वार्थ अधीन इसे ना करना बाधित।   

कभी किसी को कोई गलत सलाह ना देना,
दूसरे की असफलता में जिम्मेदार ना होना।

          ✍️ सुनीता सोलंकी 'मीना'
           ( मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश )





🦋 संस्कार संग हो अनुशासन 🦋

दिल में संस्कारों संग हो अनुशासन,

मोहिनी सूरत पर सजी मोहक मुस्कान,

ख़ुशबूदार फूलों से महकता बागान,

खिलखिलाती हंसी से चहकता आंगन।।


शील, संयम, संस्कार से सजाओ जीवन, 

रीति, नीति, धर्म, कर्म पर हो नियंत्रण,

तोल-मोल के बोल, मीठी वाणी हो पहचान, 

कर्कश बेसुरे बोल, कटुवचन जहर समान।।


खाली हाथ आया, खाली हाथ हैं जाना,

धनदौलत, माणिक-मोती, कुछ न साथ आना,

न अपने, न पराये, मिट्टी में हैं मिल जाना,

अमर हैं आत्मा, संस्कारी, अनुशासित बनाना।।


संस्कार आलोकित दीप हैं, मुक्तिपथ बतलाए,

अनुशासन से जीवन, संयम समर्पित हो जाए,

विवेक, विनय, विश्वास से जगमगाये जिंदगानी,

झूठा दंभ, झूठा अहंकार, साँचा प्रेम ही सुखदानी।।

                

✍️ चंचल जैन ( मुंबई, महाराष्ट्र )






मंगलवार, अप्रैल 19, 2022

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित ऑनलाइन प्रकृति वरदान साहित्यिक महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा प्रकृति के महत्व तथा उपयोगिता का अहसास लोगों को करवाने के उद्देश्य से ऑनलाइन 'प्रकृति वरदान साहित्यिक महोत्सव' का आयोजन किया गया। जिसका विषय 'प्रकृति का महत्व' रखा गया। इस महोत्सव में देश के अलग-अलग राज्यों के रचनाकारों ने भाग लिया। जिन्होंने दिए गए विषय पर आधारित एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट रचनाओं को प्रस्तुत कर ऑनलाइन 'प्रकृति वरदान साहित्यिक महोत्सव' की शोभा में चार चाँद लगा दिए और महोत्सव को सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस‌ महोत्सव में सम्मिलित सभी प्रतिभागी रचनाकार शख्सियतों को ऑनलाइन 'पुनीत‌ प्रकृति स्नेही' सम्मान देकर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर समूह के संस्थापक एवं अध्यक्ष पुनीत कुमार जी ने प्रकृति को ईश्वर का अनुपम वरदान तथा मानव जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकता बताते हुए सभी मनुष्यों को प्रकृति की देखभाल करने की प्रेरणा दी और महोत्सव में प्रस्तुत की गई रचनाओं पर अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देकर रचनाकारों का मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन किया और सम्मान पाने वाले सभी प्रतिभागी रचनाकारों को उज्ज्वल साहित्यिक जीवन की शुभकामनाएं दी। इसके साथ ही उन्होंने रचनाकारों को आने वाले ऑनलाइन साहित्यिक महोत्सवों में अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए सादर आमंत्रित भी किया। इस महोत्सव में उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करके समूह की शोभा बढ़ाने वालों में प्रमुख नाम कुसुम अशोक सुराणा, चंचल जैन, उर्वशी उपाध्याय प्रेरणा, ज्योति चौधरी, स्मिता चौहान, सीमा रानी प्रधान, सावित्री मिश्रा, सुनीता सोलंकी 'मीना', सुभाष सेमल्टी 'विपी' रचनाकारों के रहे।



🌴 जय माँ गंगे 🌴

नमामि गंगे, जय माँ गंगे,
मैया परम पुनीता है,
सब में बसती, कुछ ना कहती,
वो ही दुर्गा है, सीता है।

एक रूप में पूजा तुमने,
दूजे में अपमान किया,
कभी गिराया मैला-कचरा,
नालों को विस्तार दिया।

अपनी शीतलता देती है,
निर्मलता भर देती है,
पर जो जीवन हमको देती,
खुद अब आहें भरती है।

कितनी प्रबल तपस्या पर,
ब्रह्मा से वरदान मिला,
भागीरथी तब हुए प्रफुल्लित,
धरती को सम्मान मिला।

जन-वन सब है जल से,
दुनिया केवल कहती है,
माँ गंगा पर है प्रबल आस्था,
दुनिया फिर भी मैला करती है।

मानव का अपमान झेलती,
फिर भी कल-कल बहती है,
हममें नही चेतना कुछ भी,
अहंकार भी वह सहती है।

अविरल धारा करें प्रवाहित,
करुणा निश्छल कहती है ,
आओ ! अब तो हम सब जागें,
माफ सदा माँ करती है।

 ✍️ उर्वशी उपाध्याय प्रेरणा ( प्रयागराज, उत्तर प्रदेश )




🌴 प्रकृति के दिए वरदान 🌴

पापा आप ने इतनी गर्मी में गाँव जाने का प्रोग्राम क्यों बनाया, मेरे दोस्त तो कह रहे थे कि गाँव में तो बिजली भी नही आती, "परेशान सा रोहन अपने पापा के गाँव चलने के निर्णय को लेकर उनसे सवाल पर सवाल कर रहा था। पापा वहां सब बिना टी०वी०, फ्रिज और ए०सी० के कैसे रहते हैं ? "अरे, अरे रुको बेटा ! आप के जितने सवाल हैं ना सब के उत्तर आप को वहां जाकर मिल जायेंगे। अभी तो चलने की तैयारी करो। जब रोहन गाँव अपने घर पहुंचा तो उसकी चाची पानी लायी तो उसको पीने में संकोच हुआ क्योंकि उसने सुना था कि गाँव में आर०ओ० नही होता पर पापा के कहने पर उसने पी लिया और पीते ही उसको पानी का स्वाद मिनरल पानी जैसा लगा और ठंडा भी पर कैसे गाँव में ना तो फिल्टर है और ना फ्रिज ?  रोहन को गाँव में दो दिन हो गए और उसके दिमाग में कई प्रश्न घूमने लगे तो उसके पापा जो इस बात को अच्छे से समझ रहे थे, शाम को उसको लेकर गाँव में घूमने निकले और बाग में आ गए। एक पेड़ के नीचे बैठ कर उन्होंने कहा, क्या हुआ रोहन तुम कुछ परेशान हो‌ ? हाँ पापा मैं देख रहा हूँ कि यहां तो बिजली भी नही आती फिर भी यहां गर्मी नही है ठंडा और शुद्ध पानी मिलता है जबकि हमारे शहर में ऐसा नहीं है। तुम्हें याद है रोहन मैंने तुमसे कहा था कि तुम्हारे सब जवाब मिल जायेंगे तुम्हें वहां। तो सुनो बेटा यहां पर हैंडपंप या कुएं से पानी मिलता है जिसे किसी फिल्टर की जरूरत नही है और वह ठंडा भी रहता है यह हमारी प्रकृति की देन है। गाँव में तुम को हर तरफ पेड़ दिख रहे होगें तभी यहां का वातावरण इतना शुद्ध और ठंडा है जबकि शहरों में हम पेड़ काट-काट कर ईट, कंक्रीट के जंगल खड़े कर रहें हैं और ए०सी० से और प्रकृति को नुकसान कर रहे हैं।" "बेटा हम कितनी भी तरक्की कर ले प्रकृति से आगे नहीं निकल सकते। यह पेड़, नदियां प्रकृति के दिए हुए वरदान है हमें, पर हम उस की कद्र नही कर रहे और शायद जिसकी सजा हमें कोविड जैसी महामारी के रूप में मिली है। मैं तुम्हें इसलिए ही गाँव लाया कि तुम्हें बता पाऊं कि प्रकृति ने हमें कितने अनमोल वरदान दिए हैं उनका सही उपयोग करना हमारी जिम्मेदारी है। पापा आप बिल्कुल सही कह रहे हो मैं समझ गया। अब वापस जाकर अपने आस-पास पेड़ लगाऊंगा और अपने दोस्तों को भी प्रकृति के वरदान के बारे में बताऊंगा।
                            
                      ✍️ स्मिता चौहान ( गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश )




सोमवार, अप्रैल 18, 2022

🌴 धरती की पुकार 🌴

धरती कह रही है बार -बार,
हे मानव ! सुन लो मेरी पुकार।
पेड़-पौधों को ऐसे नष्ट करके,
मत उजाड़ो मेरा हरा-भरा संसार।
पेड़ लगाना होगा धरती बचाना होगा,
पर्यावरण प्रदूषण से मुक्ति पाना होगा।

बड़ी-बड़ी बातों से नहीं बचेगी धरती,
छोटी-छोटी बातों से बचेगी ये धरती।
हम सब मिल पेड़ नए-नए लगाएंगे,
पर्यावरण को स्वच्छ हम बनाएंगे।
ये धरती है जग की जीवनदायिनी,
जीवन के सकल सुख प्रदायिनी।

फल-फूल अनाज और ऑक्सीजन,
दे हर प्राणी की जीवन रक्षा है करती।
नकली ऑक्सीजन के पीछे भाग रहे,
असली ऑक्सीजन देते पेड़ काट रहे।
पेड़ों को काट मत करो नष्ट संसार ,
धरती की है बार-बार यही पुकार।

आओ ! आज हम सब मिल प्रण करें,
धरती को हरीतिमा से फिर हम भरे।
पर्यावरण को अब हमें बचाना होगा,
ऑक्सीजन देने वाले पेड़ों को लगाना होगा।
नए-नए पेड़ हम सब मिल लगायेंगे,
धरती को प्रदूषण से हम बचायेंगे।

   ✍️ सावित्री मिश्रा ( झारसुगुड़ा, ओड़िशा )








🌴 प्रकृति 🌴

भोर का पल्लू थामे, जिद पे अड़ा चंद्रमा,
कुहुँ-कुहुँ सुन मुस्कुराई, सूर्योदय की लालिमा।

छंटे नैराश्य के बादल, छा गई अरुणिमा,
प्रकृति खूब खिलखिलाई, भागी हठी कालिमा।

लहरों ने बजाया बिगुल, परिंदों ने की मंजिल फतह,
पंख फैला खग चले, बादलों से करने जिरह।

खुशनुमा बयारों ने छेड़ा, राग मधुमति मालकंस,
झूमने लगे पेड़-पौधे, भ्रमर ढूंढें, पराग-मधु-अंश।

बहा ले जाए संग-संग, सूखे पेड़-पत्तों का कुनबा,
शुद्ध जलधारा ले आगे बढ़े, छोड़ मल-मैल, मिट्टी-मलबा।

खेत-खलिहान, उपवन-बागान, जल-जंगल-सौर-ऊर्जा-प्रकाश,
नीचे हरियाली धरा, ऊपर नीला-नीला आकाश।

खेत-खलिहानों को चीरती, नागीन सी पगडंडी,
कहीं झूमती बालियां, कहीं खड़ी बेंत की दंडी।

कहीं हिमशिखरों पर तैरती, बादलों की उड़नतश्तरीयां,
कहीं श्वेत चोटियों से झांकती, किरणों की टोलियां।

कहीं उतुंग फलक पर, वीरों के खून से सजी अल्पना,
कहीं अंतरिक्ष की गोद में अलविदा कहती 'कल्पना'।

वन-उपवन, शहर-सहर, जल-जंगल, पशु-पक्षी प्रकृति रुप,
जल-थल-आकाश में व्याप्त, सृष्टि तू ! ब्रह्म स्वरुप।

रच्चनहारे का वरदान, जीव-अजीव, अणु-परमाणु तेरा संसार,
शेर, उल्लू, मयूर, मूषक, देव-दानव से पाएं प्यार।

पत्थरों को चीर मानव, बना रहा अपना आशियाना,
प्रकृति से न करो खिलवाड़, पर्यावरण से हो याराना।

कल-कल करें जलप्रपात, सुप्त प्रकृति, ऊठ करें गर्जना,
मूर्ख मानव से करे हर पल, नदी-नाले-पोखर अर्चना।

सृष्टि का श्रृंगार अनुपम, मां भगवती साक्षात रुप,
सृजन का सौंदर्य अद्भभुत, तू जीवट, जिजीविषा, जीवन प्रारुप।

        ✍️ कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई, महाराष्ट्र )




🌴 प्रकृति का महत्व 🌴

प्रकृति का महत्व क्या है यह तो एक ही शब्द से सम्पूर्ण रूप से ज्ञात हो जाता है कि "प्रकृति से ही जीवन है" प्रकृति क्या है; सामान्यतः लोग पेड़-पौधे, पहाड़, झरने आदि लेते हैं किंतु सिर्फ यही नहीं जल, अग्नि, वायु, सूर्य, पृथ्वी, तारे, अन्न, औषधियाँ, जीव आदि व दृश्य-अदृश्य सब प्रकृति हैं। प्रकृति का अर्थ है "स्वभाव", जिसकी कोई प्रतिकृति नही वह प्रकृति है। आत्माओं और भौतिक जगत का स्वभाव प्रकृति है। प्रकृति पर जीवन निर्भर है यदि प्रकृति न होती अर्थात जल, अग्नि, वनस्पति, औषधियाँ, अन्न, मिट्टी न होते अन्य विभिन्न तरह के जीव जीवन न होते तो मनुष्य जीवन की कल्पना करना भी असंभव है। प्रकृति के घटकों के होने से सभी जीवों का जीवन संभव हुआ है। एक सूक्ष्म से लेकर, छोटे से जीव से लेकर बड़े जीवों और मनुष्यों का प्रकृति के चक्र से और आपस में निर्भरता प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोगी निर्भरता है। प्रकृति जीवन को बनाती है उसके लिए आदर्श परिस्थितयां बनाती है, जीवन को चलाने के लिए सभी कुछ प्रदान करती है। ऋग्वेद में अग्नि, जल, वायु, अन्न, औषधियां, पेड़ आदि देव है इन देवों अर्थात प्रकृति की पूजा की जाती है किंतु आज की तरह पूजा नही, कि मूर्ति बनाकर पूज लो बल्कि प्रकृति को सामर्थ्यवान, स्वच्छ, जीवन उपयोगी बनाए रखने का प्रयास ही पूजा है। प्रकृति को माता भी कहा जाता है किंतु वह कोई स्त्री नही है इसलिए माता नही बल्कि उसके मातृत्व गुण, पोषण करने के गुण के कारण माता है। गीता में भी "देवान् भावयता तेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेय परमावाप्स्यथ।।" तुम प्रकृति को यज्ञ, हवन आदि से पुष्ट करोगे भावना करोगे तो वे तुम्हारी भावना करेंगे अर्थात तुम्हे पुष्ट करेंगे। अनृणा .................. आक्षियेम् (अथर्व 6/119/3) "में भी कहा गया की हमें प्रकृति, अग्नि, वायु, जल और औषधि आदि के ऋण को नही भूलना चाहिए। हमे उनके प्रति कृतज्ञ होकर उनके उपकार का ऋण चुकाना चाहिए जिससे उनका कोष सदैव भरा रहे। "जब प्रकृति का कोष भरा रहेगा तो हमारा और समस्त प्राणियों का जीवन सुगम्य और स्वस्थ बना रहेगा। प्रकृति आज कष्ठ में है तो स्वयं देखें लें मनुष्य कितना सुखी है कितना मनुष्य पर संकट है। जल का संकट, बीमारियों का संकट, स्वस्थ पोषण युक्त खाद्यान का संकट, उच्च ताप का संकट, हिमस्खलन का संकट उत्पन्न हुआ है क्योंकि आज के मनुष्य ने प्रकृति को सामर्थ्यवान बनाने के प्रयास करने त्याग दिए हैं  बल्कि उसको विकृत और नष्ट भ्रष्ट करने का कार्य कर रहा। मनुष्य के शरीर में भी प्रकृति देव निवास करते है अग्नि, जल, वायु और मांस, मज्जा के रूप में वनस्पतियां ही होती हैं। यह भी संतुलन में न हो तो जीवन संकट में हो जाता है और असाध्य रोग उत्पन्न होते हैं। शरीर के अंदर भी तभी संतुलन होगा जब प्रकृति शरीर से बाहर जीवन उपयोगी, सामर्थ्यवान बनी रह पाएगी। प्रकृति अगर सामर्थ्यवान न हो तो एक क्षण भी हम श्वास नही ले सकते जीवन संबंधित अन्य बाते तो दूर की हैं। प्रकृति का संरक्षण संवर्धन करना ही जीवन के लिए नितांत आवश्यक है।
               
           ✍️ सुभाष सेमल्टी ‘विपी’ ( देहरादून, उत्तराखंड )



रविवार, अप्रैल 17, 2022

🌴 पानी की बूंदे 🌴

आओ ! जरा ठहरें
इन बूंदो में 
रिमझिम-रिमझिम
छम-छमाछम
इसकी प्यारी धुन में 
आओ ! फिर से जी लें
छई छपाक कर लें

टप-टप टपकती
किसी झोपड़ी से
बारिश भी रुक जाती है
खपरैल के उझनाधार में
बहती हुए मस्त इठलाती है
ऊंची पहाड़ियों से मैदानो में 
झूम-झूम देखो गिरती है
झरनों के संग तान छेड़कर 
मोती सी बिखर जाती है
बारिश तू पावन है
तुझसे पावन सावन है
सृष्टि की आधार हो तुम
बूंद नही अमृत हो तुम
प्रकृति के हे सरस तत्व
तुझसे ही जीवन संभव

   ✍️ सीमा रानी प्रधान ( महासमुंद, छत्तीसगढ़ )





शुक्रवार, अप्रैल 15, 2022

🌴 आओ ! हम पेड़ हो जाएं 🌴

पतझड़ के मौसम
बड़े उम्मीद भरे होते है
पेड़ों की जरा हर लेते है
पुनः पेड़ हरे होते है
छांह घनेरे तप्त जमीं पर भर देते है 
सुकून के कुशल चितेरे होते है 

पतझड़ पेड़ों को ही लगता है
ये पेड़ सदा व्रती जो होते है
झुकते है और देते है 

हम तो अकड़े रहते है
सदा लेते रहते है
नित पुराने होते है
जरा के मारे होते है
जो ज़ख्म हमारे होते है
गहरे होते जाते है
सूखते कहां रिसते ही तो रहते है 

आओ ! अब हम बदल जाते है 
हम भी पेड़ बन जाते है
दया की छांह फैलाते है
सीख लें सेवा झुक जाएं जरा
सारा वैर आज मिटाते है 
सबके जख्मों पर रख प्रेम के नम फाहे
खुद के जख्मों पर मरहम लगाते है

  ✍️ ज्योति चौधरी ( लातेहार, झारखंड )




🌴 प्रकृति का उत्सव 🌴






प्रकृति भी देखो कैसे उत्सव मनाती है,
अनेकानेक रूपों की छटा बिखेर जाती है।

सर्वस्व जीव कल्याण हेतु न्यौछावर करती,
प्रियतम आभा की छटा धरा पर बिखेरती।

प्रकृति मनाती है उत्सव सदा पूरा-पूरा,
ना कम मनाए, ना ज्यादा, ना ही अधूरा।

राम जी ने किया चौदह वर्ष वनवास,
ना एक दिन कम, ना एक दिन ज्यादा वास।

करूणा दिव्यता जिसमें बसे वो चित्रकूट,
जहां बसी भक्तों की श्रद्धा है अटूट।

प्रभु को खुश रखने के लिए प्रकृति करे नर्तन,
देव रक्षार्थ और दानव दल का पल में मर्दन।

प्रकृति के कारण ही उद्वेग से बहती नदी,
वृक्ष की शाखाएं भी फूल-पत्तियों से रहती लदी।

       ✍️ सुनीता सोलंकी 'मीना' ( मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश )

गुरुवार, अप्रैल 14, 2022

🌴 प्रकृति प्रभु का अनूठा वरदान 🌴



 




शुभ्र जलप्रपात, धवल बादल रुई से मृदुल,
झर-झर झरे निर्झरिणी, हरियाली मखमल,
प्राची की लालिमा, हौले से उजास ले भोर,
ओस की बूंदों से झांकती रवि किरणें चितचोर।

फूलों संग अठखेलियां करती मनमौजी पवन,
पंछियों का कलरव, भंवरों का प्रीत गुंजन,
रंग-बिरंगी तितलियां, रूप सुंदर मनभावन,
फलों से लदी झुकी-झुकी डालियां, नीलाभ गगन।

छूने चले ऊंचे-ऊंचे परबत, पंछी हो मस्त मगन,
वादियों में सनन सन, घनन घन लहराती पवन,
घनी झाड़ियों में उछलते हिरण, कुलांचे भरते,
हीरे जड़े पंख फैलाकर मोर-मोरनी नृत्य करते।

कोकिल कंठी तान, प्रकृति का मधुरिम गान,
गलबहियां डाल घनी छांव देते वृक्ष, पेड़ सुजान,
सूखे पत्तों की सरसराहट, कहीं अंधियार धुप्प,
प्रकृति के अल्हड़ रूप, कहीं छांव, कहीं धूप। 

कहीं शांत, कहीं रौद्र, कही मनभावन श्रृंगार,
कहीं सरिता-सागर गहरा , कहीं खिली बहार,
सृष्टि रचयिता की नयनाभिराम कलाकारी,
अद्भुत कल्पना, अनुपम सृजन, सजी फुलकारी।

ए मानव, वरदान हैं प्रकृति, सहेजे अनमोल दौलत,
ए नादान, विधाता की देन को न करना प्रदूषित,
शीतल छांव की आस मन में, पेड़-पौधे लगाना,
काटो न वृक्ष, वन, जंगल, धरा को न बंजर बनाना।

ताजी हवा का झोंका, जलधार निर्मल रहने दे,
जीव दया भाव दिल में हो, प्रेम भाव हॄदय भर दे,
वरदान प्रकृति, परमात्मा का शुकराना नित कर,
सुख, आनंद, चैतन्य, उल्लास दिया झोली भर-भर। 

                 ✍️ चंचल जैन ( मुंबई, महाराष्ट्र )

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित ऑनलाइन चाह-राह साहित्यिक महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार 'पुनीत साहित्य अभिलाषी' सम्मान से सम्मानित।

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा लोगों को इच्छाशक्ति के महत्व का अहसास कराने तथा 'जहां चाह, वहां राह' की शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से ऑनलाइन 'चाह-राह साहित्यिक महोत्सव' का आयोजन किया गया। जिसका विषय 'चाह से मिलती राह' रखा गया। इस महोत्सव में देश के अलग-अलग राज्यों के रचनाकारों ने भाग लिया। जिन्होंने दिए गए विषय पर आधारित एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट रचनाओं को प्रस्तुत कर महोत्सव की शोभा में चार चाँद लगा दिए और महोत्सव को सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। महोत्सव में एक ओर जहां वरिष्ठ रचनाकारों ने अपनी विशिष्ट साहित्यिक शैली का प्रदर्शन किया तो दूसरी ओर नवीन रचनाकारों ने भी अपनी अनूठी भावनाओं और विचारों से समूह का ध्यान आकर्षित किया। इस‌ महोत्सव में सम्मिलित सभी प्रतिभागी रचनाकार शख्सियतों को ऑनलाइन 'पुनीत साहित्य अभिलाषी' सम्मान देकर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर समूह के संस्थापक एवं अध्यक्ष पुनीत कुमार जी ने इच्छाशक्ति को किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति का महत्वपूर्ण साधन बताते हुए लोगों को अपने संघर्ष भरे जीवन में चाह से राह बनाने के लिए प्रेरित किया तथा महोत्सव में प्रस्तुत की गई रचनाओं पर अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देकर रचनाकारों का मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन किया और सम्मान पाने वाले सभी प्रतिभागी रचनाकारों को उज्ज्वल साहित्यिक जीवन की शुभकामनाएं दी। इसके साथ ही उन्होंने रचनाकारों को आने वाले ऑनलाइन साहित्यिक महोत्सवों में अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए सादर आमंत्रित भी किया। इस महोत्सव में उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करके समूह की शोभा बढ़ाने वालों में प्रमुख नाम कुसुम अशोक सुराणा, चंचल जैन, निरुपमा बिस्सा, प्रियंका थारवान 'प्रियमित', सुनीता सोलंकी 'मीना', मन्शा शुक्ला, मीता लुनिवाल, पल्लवी पाठक, सोनल पंवार, स्मिता सिन्हा, ज्योति चौधरी, प्रिया अवस्थी शर्मा 'शब्दिता' रचनाकारों के रहे।




मंगलवार, अप्रैल 12, 2022

🛩️ चाह से मिलती ख्वाबों को जान 🛩️






चाह से मिलती राह,
और ख्बावों को मिलती जान है,
यूँ ही नहीं ! उड़ जाते,
नन्हें परिंदे, नील गगन में,
हौसलों से ही मिलती,
उनके पंखों को उड़ान है।

रास्ते यूँ ही नही,
खत्म हो जाया करते,
एक बंद हो तो,
चार ओर मिल जाया करते,
बशर्ते,
दिल में चाहत हो प्रबल,
पर्वत भी देख,
स्वयं झुक जाया करते।

यूँ ही नही महापुरुष,
जग में अमर हो जाया करते,
यूँ ही नहीं वीर सपूत,
याद आया करते,
एक बार उन सा,
तप कर तो देखो,
यूँ ही नहीं इतिहास,
रच जाया करते।

मत सोचो,
राह की कठिनाईयों को,
नित चुभते पग में इन काँटों को,
आगे बढ़ने का,
मन में अपने जज्बा तो रखो,
आत्मविश्वास की रोशनी से,
हृदय के तम,
स्वयं हट जाया करते।

काँटें मिले है,
तो गुलाब भी मिलेंगे,
रेत में प्यासे को,
तालाब भी मिलेगे,
धरातल मिले है,
तो ऊँचाईयाां भी मिलेगी,
चाह से देखना,
एक दिन राह भी मिलेगी।

क्या विध्न कोई रोक सका है,
मानव को ?
या बाधाएं ही बांध सकी है,
इस मन को ?
आकाश, पाताल,
पर्वत हो या सागर,
चाहे हो यह ब्रह्माण्ड अनंत,
क्या कोई रोक सका है,
इस मानव को ?
अपने अंक में ही,
समा जाने को ?

न जाने कितने,
गुण छिपे है ?
न जाने कितनी ,
सामर्थ्य है समाहित ?
इस मानव के,
सूक्ष्म हृदय भीतर,
अपनी चाह की राह में,
असीमित परिधि लांघ जाने को।।


         ✍️ प्रिया अवस्थी शर्मा 'शब्दिता' ( बालाघाट, मध्य प्रदेश )


🛩️ चाह से जीत की राह बना लो 🛩️










जो तुम चाह लो
पकड़ वही राह लो
हौंसले से काले वक्त के
अन्धकार में प्रकाश भरो

ऊंचे हैसियत के
दंभी प्रस्तावों पर 
निर्विचार रहो
सगे साथियों के
छली इनकार को
भूल आगे बढ़ो

स्वयंभू पाखंडियों के
दर्पित अहंकार का
प्रवाह करो, गर्त भरो
प्रवाहमय जीवन तुम्हारा
चलता हुआ दरिया बना लो

शूरवीर तुम लड़ो
तंग तारीखों के
तमस ललकार को
जीत का जरिया बना लो
ऐसी चाह से  
जीत की राह बना लो

        ✍️ ज्योति चौधरी ( लातेहार, झारखंड )

पुनीत अनुपम ग्रुप द्वारा आयोजित ऑनलाइन स्नेह ध्येय सृजन महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम ग्रुप द्वारा लोगों को स्नेह के महत्व और विशेषता का अहसास करवाने के उद्देश्य से ऑनलाइन स्नेह ध्येय सृजन महोत्सव का आयोजन किया गया...