रचनाकारों, कलाकारों, प्रतिभाशाली लोगों और उत्कृष्ट कार्य करने वाली शख्सियतों को प्रोत्साहित करने का विशेष मंच।
गुरुवार, अप्रैल 28, 2022
👨👩👧👧 फरिश्ते जैसे नाना जी 👨👩👧👧
👨👩👧👧 रिश्ते की डोर 👨👩👧👧
बुधवार, अप्रैल 27, 2022
👨👩👧👧 सुंदर होते हैं रिश्ते 👨👩👧👧
जीवन की डोर से बंधे रिश्ते
कभी हंसाते कभी रूलाते
कभी बहलाते कभी समझाते
अपनत्व से भरे सुंदर रिश्ते
सृष्टि के हर हिस्से में मौजूद है
रिश्तों के बिन कहाँ जीवन है
धरती पर पर्वत, नदी संग किनारे
मिट्टी के गर्भ में पलते सुंदर रिश्ते
खुशियों का मोल तब, जब हो अपने
दुखों के अंधियारे कौन दूर करें
सफलता के शिखर पर अकेले तुम
अपनों के साये में रहते सुंदर रिश्ते
आशा और निराशा के दोराहे पर
साथ तुम्हारे चलते, राह दिखाते
पूंजी, शोहरत चाहे जितनी पाओ
हर धन-दौलत से सुंदर होते रिश्ते
मानव का मानव से बंधता संबंध
गुरु, मित्र, मात-पिता, भाई-बहन
खुद का खुद से है एक अटूट संबंध
प्रत्येक भाव में सुंदर होते हैं रिश्ते
✍️ रश्मि पोखरियाल 'मृदुलिका' ( देहरादून, उत्तराखंड )
👨👩👧👧 रिश्तें खास होते हैं 👨👩👧👧
सोमवार, अप्रैल 25, 2022
👨👩👧👧 रिश्ते होते हैं फरिश्ते 👨👩👧👧
ऐसे रिश्तो को ही लोग मरने के बाद रोते हैं
कोई होता है जो आकर बन जाता है सहारा
जब बेजार बेकार हो हमारे भाग्य सोते है
फरिश्ते से रिश्तों के सहयोग के जिंदा हैं यहाँ
बीज तो काटने पड़ेंगे वही जो हम बोते है
ज़रा सी जिम्मेदारी आने के ड़र से दूरी बढ़ा लेते
हम सबसे पहले अपने खून के रिश्ते खोते है
जीवन भर औरों की बात मान अपनों से रूठे
कोई पूछे कि, बहकाने वाले के भी अपने होते है
✍️ सुनीता सोलंकी 'मीना' ( मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश )
👨👩👧👧 अनजाना रिश्ता 👨👩👧👧
शर्मीली आसपास के घरों में छोटे बड़े काम कर अपना घर संभालती थी कुशल गृहिणी की तरह। अभी वह घर का काम निपटा रही थी। निक्की और चिंकी आंगन में खेल रहे थे। हल्की-हल्की रिमझिम बारिश का आनंद ले रहे थे। कागज की कश्तियां पानी में बहती देख झूम-झूम नाच रहे थे। राहत भरी ठंडक से खुश हो रहे थे। पड़ोस के बिल्डिंग में रहने वाले बच्चें भी साथ थे। प्यारी नन्ही गुंजन भी साथ खेल रही थी। कोई भेद नही था किसी के मन में। न कोई अमीर था, न गरीब। न ऊँच-नीच की दीवार। निर्मल प्रेमभरा दोस्ती का रिश्ता अनजाना जैसे बारिश तेज हुई, शर्मीली निक्की, चिंकी को घर के अंदर बुला लायी। तूफानी हवाएं तेज चलने लगी थी। काली आंधी से चारों ओर धूल ही धूल नजर आ रही थी। जोर-शोर से बिजली चमक रही थी। हल्का-हल्का अंधेरा छाने लगा था। गुंजन को शर्मीली घर छोड़ आई। गरज-गरज कर बादल बरसने लगे थे। और अनहोनी हुई। धड़ाड़ धूम। जोर से आवाज आयी और बाजूवाली बिल्डिंग की गैलरी लहलहाती गिर पड़ी। नन्ही गुंजन गैलरी में खड़ी, भयभीत हो आसपास देख रही थी। मलबा ही मलबा। भयाक्रांत चीखें। डरी-डरी, सहमी-सहमी, नन्ही गुंजन, निःशब्द खड़ी थी। शर्मीली का गुंजन के घर आना-जाना था। गुंजन की दादी जी उसे काम के लिए कई बार बुलाती थी। जब भी मेहमान आते, फुर्तीली शर्मीली के काम संभालने से वह निश्चिंत हो जाती। दादी जी भी उसका पूरा ख्याल रखती। खाना, बच्चों को कपड़े, उसे साड़ी देने के लिए कोइ न कोई बहाना ढूंढती। मिठाई, बिस्कुट थैला भर-भर देती। हृदय से अमीर थे वे। सोच के भंवर से शर्मीली बाहर आई। मुसीबत में फंसे गुंजन के लिए उसने अपने आस-पास रहने वाले नौजवानों को पुकारा। भारी बारिश की परवाह किये बगैर दौड़े चले आये सब। बिल्डिंग के दूसरे माले पर ही था गुंजन का घर। नौजवानों ने गुंजन को आराम से सुरक्षित उतार लिया। दादा जी और दादी जी को भी। आज शर्मीली के घर गुंजन, उसके दादा जी, दादी जी की खूब आवभगत हो रही थी। साफ-सुथरी झोंपड़ी में शर्मीली प्यार से दाल भात खिला रही थी। पंच पकवानों से भी स्वाद। इंसानियत की महक से महकते इस रिश्तें में आत्मीयता का एहसास था। गुंजन को बचाने वाले फरिश्तों जैसे नौजवानों से जन्म-जन्म का स्नेहबंध बंध गया था।
✍️ चंचल जैन ( मुंबई, महाराष्ट्र )
शुक्रवार, अप्रैल 22, 2022
पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित ऑनलाइन संस्कार-अनुशासन साहित्यिक महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।
गुरुवार, अप्रैल 21, 2022
🦋 संस्कार और अनुशासन 🦋
🦋 संस्कार और अनुशासन का महत्व 🦋
🦋 संस्कार 🦋
बुधवार, अप्रैल 20, 2022
🦋 गुरु के दिए संस्कार 🦋
🦋 आओ ! ऐसे संस्कार बना लें 🦋
प्रेमी
हो जाएं
नदियों के
पेड़ों के
पहाड़ों के
हवाओं के
धूप से उष्ण और
मिट्टी से सोंधे हो जाएं
आदमियत फिर बच जाए
कृतज्ञता रखे मन में
स्त्रियों और वनों के लिए
जरा सी वनवासियों से भी
तृप्त करें
वृद्ध मात-पिता को
सेवा सत्कार से
अवहेलना उपेक्षा
का त्याग करें
भय और मोह छोड़ दें
आओ ! ऐसे संस्कार बना लें हम
और मानव ही रह जाएं हम
✍️ ज्योति चौधरी
🦋 सब तुम ही हो 🦋
🦋 संस्कारों की थाती 🦋
🦋 संस्कार-संस्कृति बोझ ना समझ 🦋
संस्कार-संस्कृति बोझ ना समझ,
यही धरोहर हमारी यही रक्षा कवच।
अंहकार, संस्कार में फर्क है बहुत बड़ा,
दोनों के बीच इंसान ही ठगा सा खड़ा।
अंहकार दूसरों को झुकाकर खुश हुआ,
संस्कार खुद को झुकाकर खुश हुआ।
कोई संस्कार-संस्कृति जीवित न पृथक,
सहयोग, सद्भाव से निभे इसके अर्थक।
संस्कार है दया, धर्म, न्याय, नीति,
पालन करते रहें फैलने ना दें कुरीति।
हमारा समाज और ब्रह्माण्ड है मर्यादित,
स्वार्थ अधीन इसे ना करना बाधित।
कभी किसी को कोई गलत सलाह ना देना,
दूसरे की असफलता में जिम्मेदार ना होना।
( मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश )
🦋 संस्कार संग हो अनुशासन 🦋
दिल में संस्कारों संग हो अनुशासन,
मोहिनी सूरत पर सजी मोहक मुस्कान,
ख़ुशबूदार फूलों से महकता बागान,
खिलखिलाती हंसी से चहकता आंगन।।
शील, संयम, संस्कार से सजाओ जीवन,
रीति, नीति, धर्म, कर्म पर हो नियंत्रण,
तोल-मोल के बोल, मीठी वाणी हो पहचान,
कर्कश बेसुरे बोल, कटुवचन जहर समान।।
खाली हाथ आया, खाली हाथ हैं जाना,
धनदौलत, माणिक-मोती, कुछ न साथ आना,
न अपने, न पराये, मिट्टी में हैं मिल जाना,
अमर हैं आत्मा, संस्कारी, अनुशासित बनाना।।
संस्कार आलोकित दीप हैं, मुक्तिपथ बतलाए,
अनुशासन से जीवन, संयम समर्पित हो जाए,
विवेक, विनय, विश्वास से जगमगाये जिंदगानी,
झूठा दंभ, झूठा अहंकार, साँचा प्रेम ही सुखदानी।।
✍️ चंचल जैन ( मुंबई, महाराष्ट्र )
मंगलवार, अप्रैल 19, 2022
पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित ऑनलाइन प्रकृति वरदान साहित्यिक महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।
🌴 जय माँ गंगे 🌴
🌴 प्रकृति के दिए वरदान 🌴
सोमवार, अप्रैल 18, 2022
🌴 धरती की पुकार 🌴
🌴 प्रकृति 🌴
🌴 प्रकृति का महत्व 🌴
रविवार, अप्रैल 17, 2022
🌴 पानी की बूंदे 🌴
शुक्रवार, अप्रैल 15, 2022
🌴 आओ ! हम पेड़ हो जाएं 🌴
बड़े उम्मीद भरे होते है
पेड़ों की जरा हर लेते है
पुनः पेड़ हरे होते है
छांह घनेरे तप्त जमीं पर भर देते है
सुकून के कुशल चितेरे होते है
पतझड़ पेड़ों को ही लगता है
ये पेड़ सदा व्रती जो होते है
झुकते है और देते है
हम तो अकड़े रहते है
सदा लेते रहते है
नित पुराने होते है
जरा के मारे होते है
जो ज़ख्म हमारे होते है
गहरे होते जाते है
सूखते कहां रिसते ही तो रहते है
आओ ! अब हम बदल जाते है
हम भी पेड़ बन जाते है
दया की छांह फैलाते है
सीख लें सेवा झुक जाएं जरा
सारा वैर आज मिटाते है
सबके जख्मों पर रख प्रेम के नम फाहे
खुद के जख्मों पर मरहम लगाते है
🌴 प्रकृति का उत्सव 🌴
प्रकृति भी देखो कैसे उत्सव मनाती है,
अनेकानेक रूपों की छटा बिखेर जाती है।
सर्वस्व जीव कल्याण हेतु न्यौछावर करती,
प्रियतम आभा की छटा धरा पर बिखेरती।
प्रकृति मनाती है उत्सव सदा पूरा-पूरा,
ना कम मनाए, ना ज्यादा, ना ही अधूरा।
राम जी ने किया चौदह वर्ष वनवास,
ना एक दिन कम, ना एक दिन ज्यादा वास।
करूणा दिव्यता जिसमें बसे वो चित्रकूट,
जहां बसी भक्तों की श्रद्धा है अटूट।
प्रभु को खुश रखने के लिए प्रकृति करे नर्तन,
देव रक्षार्थ और दानव दल का पल में मर्दन।
प्रकृति के कारण ही उद्वेग से बहती नदी,
वृक्ष की शाखाएं भी फूल-पत्तियों से रहती लदी।
✍️ सुनीता सोलंकी 'मीना' ( मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश )
गुरुवार, अप्रैल 14, 2022
🌴 प्रकृति प्रभु का अनूठा वरदान 🌴
पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित ऑनलाइन चाह-राह साहित्यिक महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार 'पुनीत साहित्य अभिलाषी' सम्मान से सम्मानित।
मंगलवार, अप्रैल 12, 2022
🛩️ चाह से मिलती ख्वाबों को जान 🛩️
और ख्बावों को मिलती जान है,
यूँ ही नहीं ! उड़ जाते,
नन्हें परिंदे, नील गगन में,
हौसलों से ही मिलती,
उनके पंखों को उड़ान है।
रास्ते यूँ ही नही,
खत्म हो जाया करते,
एक बंद हो तो,
चार ओर मिल जाया करते,
बशर्ते,
दिल में चाहत हो प्रबल,
पर्वत भी देख,
स्वयं झुक जाया करते।
यूँ ही नही महापुरुष,
जग में अमर हो जाया करते,
यूँ ही नहीं वीर सपूत,
याद आया करते,
एक बार उन सा,
तप कर तो देखो,
यूँ ही नहीं इतिहास,
रच जाया करते।
मत सोचो,
राह की कठिनाईयों को,
नित चुभते पग में इन काँटों को,
आगे बढ़ने का,
मन में अपने जज्बा तो रखो,
आत्मविश्वास की रोशनी से,
हृदय के तम,
स्वयं हट जाया करते।
तो गुलाब भी मिलेंगे,
रेत में प्यासे को,
तालाब भी मिलेगे,
धरातल मिले है,
तो ऊँचाईयाां भी मिलेगी,
चाह से देखना,
क्या विध्न कोई रोक सका है,
मानव को ?
या बाधाएं ही बांध सकी है,
इस मन को ?
आकाश, पाताल,
पर्वत हो या सागर,
चाहे हो यह ब्रह्माण्ड अनंत,
क्या कोई रोक सका है,
इस मानव को ?
अपने अंक में ही,
समा जाने को ?
न जाने कितने,
गुण छिपे है ?
न जाने कितनी ,
सामर्थ्य है समाहित ?
इस मानव के,
सूक्ष्म हृदय भीतर,
अपनी चाह की राह में,
असीमित परिधि लांघ जाने को।।
✍️ प्रिया अवस्थी शर्मा 'शब्दिता' ( बालाघाट, मध्य प्रदेश )
🛩️ चाह से जीत की राह बना लो 🛩️
हौंसले से काले वक्त के
अन्धकार में प्रकाश भरो
ऊंचे हैसियत के
दंभी प्रस्तावों पर
सगे साथियों के
छली इनकार को
स्वयंभू पाखंडियों के
दर्पित अहंकार का
प्रवाहमय जीवन तुम्हारा
चलता हुआ दरिया बना लो
शूरवीर तुम लड़ो
तंग तारीखों के
तमस ललकार को
जीत का जरिया बना लो
ऐसी चाह से
✍️ ज्योति चौधरी ( लातेहार, झारखंड )
पुनीत अनुपम ग्रुप द्वारा आयोजित ऑनलाइन स्नेह ध्येय सृजन महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।
पुनीत अनुपम ग्रुप द्वारा लोगों को स्नेह के महत्व और विशेषता का अहसास करवाने के उद्देश्य से ऑनलाइन स्नेह ध्येय सृजन महोत्सव का आयोजन किया गया...
-
बन जाते हैं कुछ रिश्ते ऐसे भी जो बांध देते हैं, हमें किसी से भी कुछ रिश्ते ईश्वर की देन होते हैं कुछ रिश्ते हम स्वयं बनाते हैं। बन जाते हैं ...
-
जीवन में जरूरी हैं रिश्तों की छांव, बिन रिश्ते जीवन बन जाए एक घाव। रिश्ते होते हैं प्यार और अपनेपन के भूखे, बिना ममता और स्नेह के रिश्ते...
-
हे प्रियतम ! आपसे मैं हूँ और आपसे ही मेरा श्रृंगार......। नही चाहिए मुझे कोई श्रृंगार-स्वर्ण मिल जाए बस आपका स्नेह.. ...