मंगलवार, सितंबर 28, 2021

❇️ वो बचपन का जमाना ❇️

 

लौटा दो मुझको

वो बचपन का जमाना

नही रास आ रहा

ये बड़े होना हमारा


पापा का अपनी लाडो पे मरना

मेरी खुशी का हर काम करना

वो पलकों पे रखना

वो उँगली पकड़कर साथ चलना

वो बीमारी में मेरी सारी रात जगना


लौटा दो मुझको........बड़े होना हमारा


वो मम्मी की लोरी

वो आँचल की छइयां

जहाँ रही खुशी से ये छोरी

अपने हिस्से की ख़ुशियाँ

मेरे दामन में भरना


लौटा दो मुझको......बड़े होना हमारा


वो भाइयो का प्यार

वो उनका दुलार

परियों सा रखता था ख्याल

चुभे काँटा मुझको तो 

भाई को होता दर्द का एहसास

ऐसा भाइयों का प्यार


लौटा दो मुझको......बड़े होना हमारा


वो दादा-दादी की 

पलको की छइयां

वो नाना-नानी का

किस्से-कहानी सुनाना

वो चाचा का मुझको 

काँधें पर लेकर फिरना

अपनी जान से ज्यादा वो प्यार

मासी का प्यार बड़ा निराला

देती थी मुझको

वो खाने का पहला निवाला


लौटा दो मुझको......बड़े होना हमारा


वो दोस्तों के साथ

दिन रात खेलते रहना

ना कल की फिक्र 

ना आज की चिंता

वो गुड़ियों की दुनियां

वो सपनों का आँगन 


लौटा दो मुझको......बड़े होना हमारा


✍️ मीता लुनिवाल ( जयपुर, राजस्थान )

❇️ उम्र ने बचपन को जुदा होने ना दिया ❇️

 

मेरे बड़ों ने मुझे बड़ा न होने दिया।
छोटों ने ख्वाबों को खोने ना दिया।
स्नेह के प्रगाढ़ बंधन दोनों, लिहाजा।
उम्र ने बचपन को जुदा होने ना दिया।

चिड़िया, बुलबुल, तितली और फूल,
छोटे से काम और छोटी-छोटी भूल,
बचपन की सहेलियां, पेड़ पर झूले,
ग़म की दुनिया में दिल डुबोने ना‌ दिया। 
उम्र ने बचपन को जुदा होने ना दिया। ‌

माँ का हाथों से खाना खिलाना।
पापा की ऊंगली में सारा जमाना।
दीदी के साथ नाटक, नृत्य, गाना।
उन पलों ने कभी मायूस होने ना दिया।
उम्र ने बचपन को जुदा होने ना दिया।

उस दिन हम थोड़ा बड़े हुए।
जब पापा छोड़ कर चले गए।
मां के आंसू, पापा की यादों ने,
कितनी रातों ने हमें सोने ना दिया।
उम्र ने बचपन को जुदा होने ना दिया।

आज भी माँ रोज फोन करती हैं।
बचपन की यादें साझा करती हैं।
कहें गुरु श्री स्वामी सनातन श्रुति।
हालातों ने हंसने, हौसलों ने रोने ना दिया।
उम्र ने बचपन को जुदा होने ना दिया।

             ✍️ प्रतिभा तिवारी ( लखनऊ, उत्तर प्रदेश )

❇️ चलो बचपन तलाशें ❇️

 

चलो बचपन तलाशें,
आओ फिर वही दिन खोज लायें,
वही गलियां, वही सखियाँ।
वही बेफिक्री के आलम, 
वही मस्ती भरे हर पल।
चलो इक बार फिर से,
वो खोया बचपन तलाशें।
वो माँ की डाँट मीठी सी,
फिर प्यार ममतामयी प्यारी।
माँ की गोद में सोना,
सुनते-सुनते कोई कहानी।
बेबात की बातें,
बस बातें ही बातें।
तौलने का डर नही,
कुछ इस तरह की बातें।
चलो फिर से तलाशें,
फुरसत भरे हर दिन।
ना डर कोई जमाने का,
ना उम्मीद कोई थी।
किस्से कहानी के पात्र ही,
सब संगी साथी थे।
ना घर की कोई चिंता,
ना कोई परेशानी।
चलो इक बार फिर से,
वो खोया बचपन तलाशें।
वो खेल सारे के सारे,
वो भागता और दौड़ता बचपन।
कोई हो खोज ऐसा,
जो मेरा बचपन दिला दे।
कोई हो ज्ञान ऐसा,
जो मेरा बचपन दिला दे।
चलो इक बार फिर से,
वो खोया बचपन तलाशें।

   ✍️ डॉ.सरला सिंह "स्निग्धा" ( मयूर विहार, दिल्ली )


❇️ बचपन के वो दिन ❇️

 

अभी भी हम,
नही भूले हैं अपने,
सुनहरी दिनों की,
याद को संजोये है,
बचपन के वो दिन।

जब धूल मिट्टी पर,
खेला करते थे,
पढ़ाई पर ध्यान नही देते थे,
पर अभी भी मेरे लिए खास है,
बचपन के वो दिन।

कभी ठंड का एहसास नही,
गर्मी का मज़ा लिया करते थे,
झूठ-मूठ का लड़ना-झगड़ना,
अभी भी हमें याद है,
बचपन के वो दिन।

बचपन का गुज़रा,
वो पल बहुत सताता है,
हरपल बचपन याद हमें आता है,
काश ! लौटा सकता कोई,
बचपन के वो दिन।

       ✍️ रामभरोस टोण्डे ( बिलासपुर, छत्तीसगढ़ )

❇️ बचपन की यादें ❇️

 

कहना था किसी को बचपन से वो मधुमय भूल गए,
कैसी थी वो तोतली बानी कैसा था वो अपनापन।

मटक-मटक कर कैसे चिड़ाते छुप-छुप कर कहते है दर्पण,
कैसे-कैसे खेल खिलाए मौज उड़ाई है हरदम।

मां का कितना प्यार मिला है पिता ने देखा हर कदम- कदम,
कभी किसी ने डाट पिलाई रोते थे और मां घबराई।

कभी झगड़ना फिर मिल जाना खेल-खेल में फिर अपनाना,
दो उंगली को मिला-मिला कर ऐसे मित्र बनाते थे।

चोर सिपाही का खेल जो खेला उसमे भी लड़ जाते थे,
गुल्ली डंडा की जब बारी आई उसमें सबने मौज उड़ाई।

लुका छुपी में चुपके से मिलते आंख-मिचोनी में
सरमाए,
मां की लोरी को सुनकर भी भूखे पेट सो जाते थे।

बचपन जैसा कुछ ना होता जहां सब सुख मिल जाते हैं,
अपनों को अपनाते जब बचपन कि यादें खूब बताते है।

               ✍️ रमाकांत तिवारी ( झांसी, उत्तर प्रदेश )


❇️ बचपन के दिन ❇️

 

वो बारिश का पानी,
पानी में भीगना याद हैं।
वो दोपहर में सोने का,
जूठा बहाना याद हैं।
घर की छत पर वो,
जाड़े की धूप याद हैं।
बचपन के यारों के,
घर रोज़ जाना याद हैं।
गर्मियों की घोर धूप में,
नींद से जी चुराना याद हैं।
फ्रिज में से बर्फ चुपके,
चुराके खाना याद हैं।
दादी नानी का डांट से,
बचाना याद हैं।
सावन के मेलों में,
दोस्तों संग जाना याद हैं।
वो परीक्षा के दिनों में,
रेडियो संग पढ़ना याद है।
खेलने के बाद गन्दे,
कपड़े छुपाना याद है।
टिफिन का खाना,
दोस्तों को बांटना याद है।
वो दीवाली के दिनों में,
पैसे जमा करना याद है।
गलीं में खेलते-खेलते,
शीशे तोड़ के छुप जाना याद हैं।
वो बचपन के दिन,
वो गुज़रा ज़माना याद हैं।

    ✍️ मुकेश बिस्सा ( जैसलमेर, राजस्थान )



❇️ कहां खो गया बचपन ? ❇️

  

कहाँ खो गया ?
महामारी के भंवर में,
बच्चों का अल्हड़पन ?
कंक्रीट के जंगलों में, 
जज़्बातों के खंडहर तले,
नौनिहालों का बचपन ?

"ऑनलाइन शिक्षा" के चक्रव्यूह में,  
अभिमन्यु सा असहाय,
फंसता, धंसता बचपन।
कड़े बंधनों में जखड़ा,
सलाखों पर सिर पटकता,
चार दीवारी में कैद बालमन।

वो डरावना सा मंज़र,
मीलों नागिन सी पगडंडी पर,
होंठ शुष्क, जिस्म थका-थका, 
नंगे पैर घिसता, तड़पता बचपन।
दाने-दाने को तरसता,
पेट के गड्डे मुश्किल से छिपाता,
अभिभावकों से बिछड़ता,
फटे-पुराने आंचल से,
पैरों के छालों को ढकता,
मुरझाई कलियों सा बचपन।

कहां है वो धमाल-चौकड़ी,
दोस्तों का जमघट, 
शरारतो का पिटारा ?
"पिकाचू" का लंच बॉक्स,
"मिकी माउस" की वॉटर बॉटल,
"स्पाइडरमैन" का स्कूल बैग,
"हनी-बनी" का रेनकोट ले...
स्कूल जाने का ख़्वाब संजोता,
मुस्कुराता, चहकता बचपन ?

कहां खो गया, 
मासूमों का स्पंदन,
वो निरागस, स्फटिक सा बचपन ?
कौन निगल गया सूरसा सा,
बच्चों का मधुबन, सपनों का आंगन ?
वो शीशे सा बिखरता, दम तोड़ता,
भोला-भाला बचपन।
वो देसी दारू के गुत्ते, ईंट के भट्टे,
चाय के ठेले, जमीन के पट्टे,
पटाखों की फैक्ट्री, बीड़ी के कारखाने,
यहीं पर कहीं, स्वेद-अश्क बहाता, 
मानव-तस्करी की भेंट चढ़ता, 
निरागस, कोमल बचपन।

कहां है वो बादलों का "ब्लैकबोर्ड"?
'सौदामिनी' की रुपहली लकीरें,
मोतियों सी बारिश की बूंदे,
पंख झटकते भीगे परिंदे ?
वो बादलों की गड़गड़ाहट,
वो पत्तों की थरथराहट,
वो नौनिहालों की चहचहाहट,
वो पेड-पौधों की सुगबुगाहट,
वो शिक्षकों की चहलपहल,
वो स्कूल की दनदनाती बेल,
वो मास्टरजी का डस्टर, चॉक,
वो फटी-पुरानी किताब, 
टूटी-फूटी ऐनक ?
कहां खो गया वो, 
विराट फलक पर उभरता,
देश का स्वर्णिम भविष्य ?

 ✍️ कुसुम अशोक सुराणा ( मुंबई, महाराष्ट्र )

❇️ प्यारा बचपन ❇️

 

मोहिनी बाल लीलाएं अद्भुत,
भोला-भाला बचपन नटखट,
अल्हड़ अठखेलियां, शरारतें,
वह मासूम मुस्कुराहट।।

मनमोहना की मनभावन,
मधुर सुर लहरी-सा मधुरिम,
इठलाता, इतराता, बलखाता,
जैसे सुहाना सुहासी मौसम।।

खिलते सुरभित फूलों-सी,
तरोताजगी, आह्लादित भाव,
कलरव करते पंछियों-सी,
उन्मुक्त चहचहाहट, प्रेमभाव।।

मासूम, प्यारी-प्यारी सूरत,
परम प्रभु-सी मनोहारी मूरत,
निश्छल, खूबसूरत, सदाबहार,
भक्ति भाव की मधुरस बहार।।

उम्र का अति कोमल, निर्मल पड़ाव,
न कोई चिंता, फिकर, न कोई तनाव,
खूब खेलो, नाचो, गाओ, मौज करो,
शोर, धमाचौकड़ी, निशंक उधम करो।।

रूठना-मनाना, कट्टी-बट्टी, प्यार की बौछार,
पलभर में झगड़ा, पलभर में आनंद फुहार,
जी लो जी भर मासूम, निरागस बचपन प्यारा,
लौट न आयेगा ये अलबेला मौसम दुबारा।।

नन्हा-सा दीपक हरे गम अंधियार,
मासूम हंसी से हरदिल में उजियार,
मानवता का पावन श्रृंगार,
बचपन प्रभु का सर्वोत्तम उपहार।।

ढलती उम्र, जीवन की संध्या बेला में,
सहेजा हैं शिद्दत से हमने बचपन दिल में,
निश्चल, पावन, पुनीत, पुलकित बचपन,
सुरभित भावपुष्पों से सजा हो जैसे उपवन।।

✍️ चंचल जैन ( मुंबई, महाराष्ट्र )


❇️ चलो बचपन जीकर आते हैैं ❇️

यह बचपन भी ना हर बार याद आता है,
जब देखती हूँ अपने आस-पास खेलते बच्चों को,
उनकी अठखेलियों को, उनकी शरारतों को,
मेरे मन का बच्चा पुलक सा उठता है, 
आज भी जब बचपन के घर जाती हूँ,
तो पिता के लाड से, माँ के दुलार से,
मेरा बचपन चहक सा उठता है,
उतर जाता है वह आवरण,
जो चेहरे को उम्र के लबादे से ढकता है,
 वह भाई बहनों के साथ मिलकर,
 खिल-खिलाता है आज भी मेरा बचपन, 
 जो मुझे जिंदा बनाए रखता है,
 यह दुनिया का दस्तूर भी कुछ अजीब सा है,
 उम्र के दौर में लोग बचपन भुला देते हैं, 
 अपने अंतर्मन के बच्चे को भूल सा जाते हैं,
 लौटता नहीं दोबारा वह वक्त,
 जिसे कभी खेलते हुए हम छोड़ आए थे, 
 आज भी उन गलियों में आहिस्ता से घूम कर आती हूँ,
 जो सखियां बिछड़ गई थी वक्त के दौर में, 
 फेसबुक में उन्हें आज फिर से पाती हूँ,
 दूर से ही सही, फिर से उनके साथ बचपन जी कर आती हूँ,
 चलो एक बार फिर से बचपन से मिल कर आती हूँ।

                                    ✍️ डॉ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र ) 


❇️ मेरे बचपन के दिन ❇️

 

यूँ ही कई बार बैठे-बैठे,
बचपन के दिन याद आते हैं।
मेरे प्राथमिक विद्यालय के नए चेहरे,
 एक-दूसरे को गौर से देखते रहते।
फिर धीरे-धीरे एक दूसरे से,
परिचित हो जाते।
अपने सबसे अच्छे दोस्त का हाथ पकड़,
 कक्षा की ओर ले जाते।
बेंच पर बैठकर एक दूसरे के,
टिफिन का खाना शेयर करते।
खेल के मैदान में,
खुली हवा में दौड़ कर खेलते।
बगीचे में तितलियों का पीछा करते,
उँगलियों से खेलने वाले काग़ज़ के खिलौने बनाते।
गुड़िया और मुलायम खिलौनों का संग्रह करते, 
लड़ाई-झगड़े करके फिर से एक हो जाते।
बरसात के मौसम में पोखरों में नाचते,
अब जब मैं अपने बीते दिनों को देखती हूँ,
और सोचती हूँ।
तो याद आते है मुझे,
वो लापरवाह मस्ती भरे दिन बचपन के।

     

             ✍️अनुपमा कडवाड़ ( मुंबई, महाराष्ट्र )



❇️ मासूम बचपन ❇️

काश ! कोई  फिर लौटा दे,
वो मेरा मासूम बचपन।

माँ की गोदी में बना पालना,
वो उसकी बाहों में झूलना।

भरी दुपहरी में नंगे पैर घूमना,
बागों से आम चुराकर खाना।

बड़ों की डाँट खाकर मुस्कुराना,
फिर दादी माँ से बहाने बनाना।

काश ! कोई फिर लौटा दे,
मेरा वो मासूम बचपन।

दादा, नाना के किस्से सुनकर,
वो बरगद पे बेताल का भ्रम होना।

रेतीले महल में गुड़िया ब्याह रचना,
बारिश में काग़ज़ की नाव चलाना।

स्कूल में पट्टी पर लड़कर बैठना,
दोस्तों की दवात से मेरा लिखना।

काश ! कोई फिर लौटा दे,
मेरा वो मासूम बचपन।

खुले मैदान, बचपन के मेले,
 मेरे वो अनोखे खेल-खिलौने।

काश ! कोई फिर लौटा दे,
मेरी वो बचपन की अल्हड़ यादें।

✍️ तनु सिंह "जिज्ञासा" ( नैनीताल, उत्तराखंड )

सोमवार, सितंबर 27, 2021

❇️ बचपन ❇️

 

है याद बचपन की हर घड़ी,
थे हम छोटे पर ख़ुशियाँ बड़ी,
साँसें थी दोस्तों से जुड़ी,
मज़बूत थी हर एक कड़ी।

सीधी-सादी थी डगर,
करता न था कोई अगर-मगर,
न कुछ खोने का डर,
न थी जीवन की फ़िक्र।

ज़मीन-आसमान थे हमारे,
सबको हम प्राणों से प्यारे,
मासूमियत से भरे,
छल-कपट से कोसों परे।

हुए बड़े तो कितना कुछ छूट गया,
बेफ़िक्री का ज़माना रूठ गया,
हर कोई बड़ा बनने में जुट गया,
जिसमें सुख चैन लुट गया।

दिल के कोने में बसी हैं बालपन की मस्तियाँ,
काग़ज़ की कश्तियाँ,
जेबें ख़ाली ख़ुशी से भरी झोलियाँ,
जीवन से भरी हुई ठिठोलियाँ।

बचपन गया ढल,
नदी सा बह गया कल-कल,
तमन्ना है लौट आए वो पल दो पल,
रुकी- रुकी सी ज़िंदगी फिर पड़े चल।

              ✍️ इंदु नांदल ( बावेरिया, जर्मनी )

शनिवार, सितंबर 25, 2021

🔆 बचपन तुझको लग गई नज़र 🔆

 बचपन तुझको लग गई नज़र 
 खेला करते थे शाम सहर
 दौड़ा करते थे पहर-पहर
 अमिया चुनते थे बागों में
 भागा करते मां से छुपकर
 बचपन तुझको लग गई नज़र।

 मां हमें नहीं जब पाती थी
 देकर आवाज बुलाती थी
 कानों से पकड़ कर लाती थी
 मां पूरी डांट पिलाती थी
 मां की वह डांट भी भाती थी
हम हँस पढ़ते थे खिल-खिल कर
बचपन तुझको लग गई नज़र।

पिज़्ज़ा, चिप्स और मोमोज जैसी
चीजों की थी बुनियाद नहीं
रोटी, दाल और चटनी का
भूला अब तक वह स्वाद नहीं
मां की पसंद के भोजन को
कभी ठुकराया यह याद नहीं
देखा करती थी मां सबको
मां की पैनी थी बड़ी नज़र
 बचपन तुझको लग गई नज़र।

 तू था बचपन नटखट-नटखट
 भागा करता था तू सरपट
 हर पल करता खटपट-खटपट
 आ लौट के तू फिर आ झटपट 
 चुप बैठ ना बोला कर पट-पट
 क्यों रूठ गई तेरी चपर-चपर
 बचपन तुझको लग गई नज़र।

 कितना सुंदर और सलोना था
 खुश घर का कोना-कोना था
 एक कमरे में तू सिमट गया
 बस मोबाइल से लिपट गया
 सबकी आंखें विस्मित सी हैं
 बगिया आंगन सब हहर हहर
 बचपन तुझको लग गई नज़र।
 
 सब खेल-खिलौने रूठ गए
 संगी साथी सब छूट गए
 सब खेल सिमट गया कमरे में
 हर दोस्त सिमट गया अपने में
 भोला बचपन तू किधर गया
 सब ढूंढ रहे तुझे शहर-शहर
 बचपन तुझको लग गई नज़र।
       
                 ✍️ संध्या शर्मा ( मोहाली, पंजाब )

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तरीय 'बचपन' विषय पर आधारित ऑनलाइन 'साहित्यिक प्रतियोगिता' के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन "साहित्यिक प्रतियोगिता" का आयोजन किया गया। जिसका विषय 'बचपन' रखा गया। इस प्रतियोगिता में इंदु नांदल (बावेरिया, जर्मनी) की प्रतिभागिता ने एक ओर जहां इस राष्ट्रीय स्तरीय प्रतियोगिता को अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता बना दिया तो वहीं दूसरी ओर देश के अलग-अलग राज्यों के प्रतिभागी रचनाकारों ने भी एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट 'बचपन' विषय पर आधारित अपनी रचनाओं को प्रस्तुत कर प्रतियोगिता के स्तर को काफी ऊंचा उठा दिया। समूह के निर्णायकों द्वारा रचनाओं की उत्कृष्टता और रचनाकारों द्वारा रचनाओं में प्रस्तुत की गई हृदयस्पर्शी भावनाओं के आधार पर संध्या शर्मा, इंदु नांदल, कुसुम अशोक सुराणा, प्रतिभा तिवारी, चंचल जैन, डाॅ. ऋतु नागर, मीता लुनिवाल को "पुनीत सर्वश्रेष्ठ रचनाकार" सम्मान देकर सम्मानित किया गया तथा अन्य प्रतिभागी रचनाकारों को "पुनीत श्रेष्ठ रचनाकार" सम्मान देकर सम्मानित किया गया। इस प्रतियोगिता में अपनी रचना प्रस्तुत कर समूह की शोभा बढ़ाने वालोे में प्रमुख नाम संध्या शर्मा, इंदु नांदल, कुसुम अशोक सुराणा, प्रतिभा तिवारी, चंचल जैन, डाॅ. ऋतु नागर, मीता लुनिवाल, राज सुराना, रमाकांत तिवारी, डाॅ. सरला सिंह "स्निग्धा", डॉ. उमा सिंह बघेल, रामभरोस टोण्डे, मुकेश बिस्सा, अनुपमा कडवाड़, तनु सिंह "जिज्ञासा" रचनाकारों के रहे। इस अवसर पर समूह के संस्थापक एवं अध्यक्ष पुनीत कुमार जी ने‌ सभी सम्मानित रचनाकारों को बधाई तथा शुभकामनाएं दी और कहा कि पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह इसी तरह आगे भी ऑनलाइन 'साहित्यिक प्रतियोगिताओं' के माध्यम से रचनाकारों को अपनी साहित्यिक प्रतिभा दिखाने का अवसर प्रदान करता रहेगा तथा नए रचनाकारों को साहित्यिक मंच उपलब्ध करवा के साहित्य के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता रहेगा।

शुक्रवार, सितंबर 17, 2021

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह के राष्ट्रीय स्तरीय ऑनलाइन 'दूरदर्शन स्थापना दिवस साहित्यिक महोत्सव' के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा दूरदर्शन स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन "दूरदर्शन स्थापना दिवस साहित्यिक महोत्सव" का आयोजन किया गया। जिसका विषय 'दूरदर्शन से जुड़ी यादें' रखा गया। इस महोत्सव में देश के अलग-अलग राज्यों के रचनाकारों ने भाग लिया तथा दूरदर्शन पर आधारित अपनी बेहतरीन रचनाओं को प्रस्तुत कर दूरदर्शन से जुड़ी पुरानी यादों को फिर से ताज़ा कर दिया। इस महोत्सव में मंजू शर्मा (सूरत, गुजरात), डॉ० ऋतु नागर (मुंबई, महाराष्ट्र) और शिल्पा मोदी (पश्चिम वर्धमान, पश्चिम बंगाल) की रचनाओं ने सभी का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। इस महोत्सव में सम्मिलित सभी प्रतिभागी रचनाकार शख्सियतों को ऑनलाइन "पुनीत रचनात्मक दीप" सम्मान देकर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर समूह के संस्थापक एवं अध्यक्ष पुनीत कुमार जी ने दूरदर्शन को ज्ञान, जानकारियों और मनोरंजन का महत्वपूर्ण स्रोत बताया और महोत्सव में प्रस्तुत की गई रचनाओं पर अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देकर रचनाकारों का मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन भी किया। उन्होंने समूह द्वारा आयोजित होने वाली ऑनलाइन 'साहित्यिक प्रतियोगिता' में सम्मिलित होने के लिए हिंदी रचनाकारों को सादर आमंत्रित भी किया। इस महोत्सव में उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करके समूह की शोभा बढ़ाने वालों में प्रमुख नाम प्रतिभा तिवारी, मंजू शर्मा, संध्या शर्मा, डॉ. उमा सिंह बघेल, सावित्री मिश्रा, लक्ष्मी भट्ट, मीता लुनिवाल, डाॅ. ऋतु नागर, मुकेश बिस्सा, रमाकांत तिवारी, शिल्पा मोदी रचनाकारों के रहे।

गुरुवार, सितंबर 16, 2021

🦋 आज फिर याद आया दूरदर्शन 🦋

जिसमें सत्यम शिवम् सुंदरम है समाया,
वही नाम मेरे आज सपने में आया।

जिसको सबने अपने मन में बसाया,
उसी को हम सब ने दूरदर्शन बताया।

कितने धारावाहिक कार्यक्रम भी दिखाए,
जो देश-विदेश सब जगह गए सराहे।

रामायण, महाभारत, सब पुराण दिखाए,
विक्रम-बेताल अलिफ-लैला भी नहीं जाते भूलाए।

कार्यक्रम अगर कोई छूट जाए तो लोग बहुत तड़पते थे,
टी०वी० वालों के थे ठाट-बाट वह बात-बात पर अकड़ते थे।

चित्रहार सब हिल मिल देखें रंगोली देखें शान से,
शक्तिमान की जब बारी आई तब देखे आराम से।

दूरदर्शन के उस दौर की चकाचौंध से कोई बच ना पाया,
कितने ही कलाकारों ने इसके माध्यम से अपना नाम चमकाया।

जब-जब नेटवर्क ना मिलने पर माँ-बाप का दिल घबराया,
तब उठ-उठ कर के बच्चो ने धीरे-धीरे एंटीना घुमाया।

आज फिर से हुई ताज़ा मेरी बचपन की यादें,
आज फिर दूरदर्शन का वो स्वर्णिम दौर याद आया।

         ✍️ रमाकांत तिवारी ( झांसी, उत्तर प्रदेश )

🦋 दूरदर्शन के प्रभाव 🦋

इक्कीसवी सदी का,
एक अनमोल अविष्कार हैं दूरदर्शन।
जो करा सकता है सबको,
विश्व के हर छोर के दर्शन।

वैज्ञानिक बेयर्ड ने किया था,
जब इसका अविष्कार।
तब लोगों को लगा था, 
जैसे है यह एक नया चमत्कार।

कुछ लोग इसके तो,
विरोध में बस खड़े है।
नैतिक मूल्यों के पतन की,
गहरी सोच में पड़े हैं।
 
कहीं चूक है अपनी जो,
मित्र दूरदर्शन हो रहा दोषी।
वरना ताका-झांकी चलती सदा,
कि क्या कर रहा अपना पड़ोसी ?
 
विज्ञान है और ज्ञान है,
मनोरंजन की खान है, 
देश के विकास में,
कुछ इसका योगदान है।
बनाया गया इसको काम के लिए,
उपयोगी है ये सुबह-शाम के लिए।
फिर क्यों हम इसके दुरुपयोग से,
सांस्कृतिक प्रदूषण में जीयें।।

✍️ मुकेश बिस्सा ( जैसलमेर, राजस्थान )

🦋 दूरदर्शन की झाकियां 🦋

साठ वर्षीय दूरदर्शन की,

साठ झांकियां लाई हूँ।

इंटरनेट की दुनिया को,

एंटीना से मिलवाने आई हूँ।


 *नुक्कड़* पर *हमलोग* रोजाना,

 *औरत की कहानी* कहते थे।

 *फौजी* की चर्चा करते,

और खूब *उड़ान* भरते थे।


कुछ कच्चा तो कुछ पक्का,

*भारत की खोज* बताते थे।

तभी विद्युत तरंग को लाकर,

प्रत्यक्ष रूप दिखाते थे।


रविवार को जल्दी उठकर,

*शक्तिमान* बन जाते थे।

*नीम का पेड़* का युग था वो, 

हम *स्वाभिमान* जगाते थे। 


*जुनून* होता था *चंद्रकांता* का, 

*फिर वहीं तलाश* कर आते थे। 

*जुबान संभालकर* रहते थे, 

पर *कशिश* तो बुनते ही थे। 


 *इंतजार* रहता घंटों का, 

 *जंगल बुक* की दुनिया थी। 

 *लोक गाथा* थी बड़ी मनोहर, 

जीवन *सर्कस* की पुड़िया थी।


 *गुल गुलशन गुलफाम* सभी थे, 

 *दास्तां ए हातीम* सुनते थे। 

 *फूलवती* की साड़ी में, 

गलती कर छुप जाते थे। 


 *मुंगेरीलाल के हसीन* सपने थे, 

 *श्रीमान-श्रीमती* *पड़ोसन* थे। 

 *तू-तू मैं-मैं* ना करते,

बस *शांति* से रहते थे। 


 *बड़ी सुहानी दुनिया* थी वो, 

बस सुन्दर-सुन्दर सपने थे, 

  *फ्लॉप शो* कोई ना था,

ना *तीखी बातें* करते थे।


  *इन्द्रधनुष* से रंग भरे थे, 

  *रामायण* की शिक्षा थी। 

  *किले का रहस्य* समझने, 

 *महाभारत* की दीक्षा थी। 


  *श्री कृष्ण* और रंगोली थी, 

*चाणक्य* की नीति थी।

 *खानदान* मेें सबके *सुरभि* 

  *इधर उधर* ना करती थी। 


  *चित्रहार* था सब का जीवन,

सतयुग की बस गाथा था।

*चाट-पानी* सब गलियों मेें बिकते, 

यह अनुपम *युग* कहलाता था। 


  *कहां गए वो लोग* यहां के 

  जहां *मिर्जा ग़ालिब* हंसते थे, 

  *और भी ग़म है दुनिया* के पर, 

सब मिलकर ही रहते थे।


  *नीव* बड़ी मजबूत थी तबकी, 

वर्तमान सा कुछ ना था।

  *चांद सितारे* और *चन्दामामा* थे, 

पर *अलिफ लैला* जैसा आनंद ना था।


  *बनेगी अपनी बात* सदा, 

  *तेनाली रामा* कहते थे। 

  *ब्योमकेश बक्शी* के साथी बन, 

  *राजा और रैंचो* रहते थे। 


  कभी-कभी *स्पेस सिटी* के, 

  *अलाउद्दीन* बन जाते थे। 

  *अरबियान नाइट्स* की शोध में, 

  अन्य साथ से निकल जाते थे। 


आओ ! नींद आ नींद आ खेले,

तब कोई नहीं कहता था ।

  *दर्द का रिश्ता* दिल को छूता,

बेटा माँ-बाप की पूजा करता था। 

✍️ मंजू शर्मा ( सूरत, गुजरात )

🦋 वो ज़माना 🦋

  

वो जमाना कुछ अलग सा था,
जब दूरदर्शन हम सबके लिए,
बहुत खास हुआ करता था।
तब चौबीस घंटे कार्यक्रम नही आते थे।
हमें अपने कार्यक्रम देखने के लिए,
घंटों और दिनों का इंतजार करना पड़ता था।
पर उन दिनों का लुत्फ अलग हुआ करता था।
शनिवार और रविवार का तो,
बहुत ही बेसब्री से इंतजार होता था।
रामायण, महाभारत, चंद्रकांता जैसे,
शिक्षाप्रद सीरियलों का दबदबा था।
वो सुबह-सवेरे रंगोली रंगों से भरपूर थी।
मोगली, शक्तिमान, कच्ची धूप जैसे,
सीरियल बच्चों की जान थे।
दूरदर्शन पर जो न्यूज़ चलती थी, 
उनकी तो बात ही निराली थी।
कृषि दर्शन जैसे कार्यक्रम भी,
तब खास हुआ करते थे।
तब घर में एक ही टी०वी० हुआ करता था।
पूरा परिवार एक साथ मिलजुल कर, 
कार्यक्रमों का आनंद लिया करता था।
दूरदर्शन का एंटीना ठीक करने के लिए,
हर रोज छत पर दौड़ा करते थे।
सच कहूं तो दूरदर्शन,
हम सबके लिए बहुत ही खास था,
वो ज़माना भी कुछ अलग सा था।

                 ✍️ डॉ० ऋतु नागर ( मुंबई, महाराष्ट्र )

🦋 दूरदर्शन की यादें 🦋

दूरदर्शन का आगमन हमारे देश में एक क्रांति साबित हुआ है। मनोरंजन की दुनिया का यह एक अमूल्य तोहफा था। इसकी शुरुआत सबसे पहले दिल्ली से हुई जहां बड़े-बड़े ट्रांसमीटर लगाकर 18 सेट अलग-अलग जगहों पर शुरू हुए। पहले इस का नाम टेलीविजन इंडिया था बाद में 1975 में दूरदर्शन हुआ। भारत में इसकी शुरुआत 15 सितंबर 1959 को हुई। शुरुआत में सप्ताह में 3 दिन आधे-आधे घंटे का कार्यक्रम दूरदर्शन पर होता था जिसमें कृषि दर्शन और समाचार होते थे। कृषि दर्शन तो आज भी चल रहा है यह सबसे लंबे समय तक चलने वाला एक लोकप्रिय कार्यक्रम है। गांव में पंचायत भवन में एक टी०वी० हुआ करता था जहां 100 से ज्यादा लोग इकट्ठे होकर इस कार्यक्रम का आनंद उठाते थे। उन्हें कृषि के बारे में बहुत सारी जानकारियां भी मिलती थी तथा उनके मनोरंजन का सबसे अच्छा साधन था। 80 के दशक में भारत के सभी राज्यों में दूरदर्शन का प्रवेश हो चुका था। प्रारंभ में जब इस पर धारावाहिक आए तो मनोरंजन की दुनिया में क्रांति आ गई। महिलाएं, बच्चे, युवा, बुजुर्ग सभी दूरदर्शन के दीवाने हो गए क्योंकि यह कार्यक्रम उनके मनोनुकूल थे। "हम लोग" और "बुनियाद "जैसे धारावाहिक बिल्कुल मध्यवर्गीय परिवार के थे। ना कोई ताम झाम था ना कोई घरेलू षड्यंत्र। इसलिए लोगों को यह चैनल भा गया। रविवार की सुबह तो किसी त्योहार से कम नहीं होती थी। लोग सवेरे नहा धोकर तैयार हो जाते और टी०वी० के सामने आकर बैठ जाते। स्त्रियां अपने घर का सारा काम निपटा कर निश्चिंत होकर रामायण की प्रतीक्षा में बैठी होती। रामायण के समय सड़कों पर कर्फ्यू जैसा सन्नाटा होता था। जिसके घर में टी०वी० होता उसके आस-पास के घरों के लोग भी आकर उनके ड्राइंग रूम में बैठ जाते और सभी मिलकर रामायण का आनंद लेते। यह एक अद्भुत नजारा होता था। लोग इसकी वजह से आपस में जुड़ते भी गए। इसके बाद महाभारत सीरियल आया वह भी बहुत ही लोकप्रिय हुआ 1982 में रंगीन टी०वी० बाजार में आ गया। इसने तो दूरदर्शन की काया ही पलट दी। क्रिकेट कमेंट्री के प्रसारण ने तो तहलका ही मचा दिया। अब तक दूरदर्शन के बहुत सारे चैनल आ गए थे। 2002 से 2004 तक इतने सारे नए चैनल आ गए और उन पर रंगारंग कार्यक्रम होने लगा कि धीरे-धीरे उनकी चमक-दमक के सामने दूरदर्शन की चमक फीकी पड़ती गई। परंतु लोगों के दिल में दूरदर्शन के धारावाहिक अब भी मौजूद थे। इसलिए जब लॉकडाउन में रामायण, महाभारत, चंद्रकांता, शक्तिमान आदि धारावाहिक का प्रसारण फिर से शुरू हुआ तो लोगों को पता ही नहीं चला कि उनका समय कितनी सहजता से बीता। शास्त्रीय संगीत हो, शिक्षाप्रद कहानियां हो, सादगी से प्रसारित समाचार हो, पौराणिक कथाएं हो, या मध्यवर्गीय परिवार का चित्रण करता हुआ धारावाहिक हो, दूरदर्शन का जवाब नही। दूरदर्शन एक क्रांति का नाम था, मनोरंजन की दुनिया की नींव का नाम था और उस पर बने महल का बादशाह था दूरदर्शन। जिस ने प्रारंभ में दूरदर्शन देखा है। वे उसे कभी नहीं भूल सकते।

                                               ✍️ संध्या शर्मा ( मोहाली, पंजाब )

🦋 वो दौर भी, क्या दौर था 🦋

 

भारत में दूरदर्शन की स्थापना 15 सितंबर 1959 को दिल्ली में हुई थी। शुरुआत में टेलीविजन पर प्रसारण आधे-आधे घंटे के लिए किया जाता था। पहले नाम टेलीविजन इंडिया के रूप मे दिया गया और बाद मे 1975 में दूरदर्शन का नाम दे दिया गया। प्रारंभ में दूरदर्शन की विकास यात्रा काफी धीमी थी। पहले ब्लैक एंड वाइट प्रसारण किया जाता था। 1982 में रंगीन टेलीविजन आने से लोगों का रुझान काफी बढ़ गया। दूरदर्शन मात्र मनोरंजन का ही चैनल नहीं था अपितु राष्ट्रीय चैनल होने के साथ-साथ सांस्कृतिक भारतीय ऐतिहासिक का चैनल हुआ करता था आज के युग में सौ चैनल निकल गए मगर  दूरदर्शन की बराबरी आज भी कोई नहीं कर सकता है। दूरदर्शन का दौर भी क्या दौर था। दूरदर्शन के सीरियल को याद आज भी दर्शक करते है। रविवार का इंतजार सभी लोग किया करते थे और सुबह पहले उठते ही सबसे पहले रंगोली देखा करते थे। इसका इंतजार लगभग सभी को रहा करता था और बच्चों की वह कार्टूंस "डोनाल्ड डक" ,"अंकल स्क्रूज", "अप्पू राजा", "मोगली जंगल-जंगल बात चली है पता चला है" उस युग के बच्चों को आज भी याद है। सुबह 9:00 बजे प्रसारित किया जाता था। रामायण बच्चों से लेकर बड़े तक सभी इस सीरियल का इंतजार करते थे फटाफट काम करना और अगर एक टी०वी० हो तो सारे मोहल्ले वाले एक टी०वी० के आगे हाथ जोड़ कर बैठ जाते और "अरुण गोविल" और "दीपिका" को ही राम-सीता के रूप में मानते पूजते थे। ऐसी कई ऐतिहासिक सांस्कृतिक सीरियल दूरदर्शन प्रसारण किया करता था जैसे महाभारत, टीपू सुल्तान, रानी लक्ष्मी बाई, चंद्रकांता, लोक नृत्य संगीत, हम लोग, बुनियाद, मालगुडी डेज से याद आता है तनतनननन करके एक म्यूजिक बजती थी सीरियल होने से पहले हम कहीं भी रहते दौड़कर टी०वी० के सामने आकर खड़े हो जाते थे। विक्रम बेताल, उड़ान, चित्रहार, सुरभि, सर्कस, मुँगेरी लाल के हसीन सपने इत्यादि उस समय के मनोरंजन के कार्यक्रम है जो हर वर्ग के लोग बहुत पसंद करते थे। दूरदर्शन का मुकाबला आज भी कोई नही कर सकता है, मर्यादित सीमा मे दिखाया जाता था, सारा परिवार एक साथ बैठकर हर कार्यक्रम का लुत्फ ले सकता था। आज के समय में टी०वी० की जगह मोबाइल ने ले ली है। अत्यधिक कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती है। आज के दौर के जैसा नहीं था वह दूरदर्शन का दौर, इसमें अब काफी परिवर्तन आ गए हैं, पर फिर भी आज भी यह सबके दिलो दिमाग में अपनी छाप बनाए हुए हैं।       

                          ✍️ शिल्पा मोदी ( पश्चिम वर्धमान, पश्चिम बंगाल )

बुधवार, सितंबर 15, 2021

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तरीय ऑनलाइन 'हिंदी दिवस साहित्यिक महोत्सव' के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम साहित्यिक समूह द्वारा हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन "हिंदी दिवस साहित्यिक महोत्सव" का आयोजन किया गया। जिसका विषय 'हिंदी की महानता' रखा गया। इस महोत्सव में देश के अलग-अलग राज्यों के रचनाकारों ने भाग लिया तथा हिंदी की महानता तथा विशेषता पर आधारित अपनी बेहतरीन रचनाओं को प्रस्तुत कर हिंदी भाषा के प्रति अपने अटूट स्नेह और आदर भाव को प्रकट किया। इस महोत्सव में संध्या शर्मा ( मोहाली, पंजाब ) तथा प्रतिभा तिवारी ( लखनऊ, उत्तर प्रदेश ) की रचनाओं ने सभी का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। इस महोत्सव में सम्मिलित सभी प्रतिभागी रचनाकार शख्सियतों को ऑनलाइन "पुनीत हिंदी गौरव" सम्मान देकर सम्मानित किया गया। इस अवसर पर समूह के संस्थापक एवं अध्यक्ष पुनीत कुमार जी ने हिंदी भाषा और उसके विद्वानों को कोटि-कोटि नमन करते हुए, समस्त देशवासियों को हिंदी दिवस की शुभकामनाएं दी तथा हिंदी दिवस मनाने के उद्देश्य की पूर्ति हेतु युवाओं को हिंदी भाषा को अपनी दैनिक बोल-चाल में अधिक से अधिक प्रयोग करने के लिए प्रेरित भी किया। इसके साथ ही उन्होंने महोत्सव में प्रस्तुत की गई रचनाओं पर अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देकर रचनाकारों का मार्गदर्शन तथा उत्साहवर्धन भी किया। उन्होंने समूह द्वारा आयोजित होने वाले विभिन्न ऑनलाइन साहित्यिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के लिए हिंदी रचनाकारों को सादर आमंत्रित भी किया। इस महोत्सव में उत्कृष्ट रचना प्रस्तुत करके समूह की शोभा बढ़ाने वालों में प्रमुख नाम प्रतिभा तिवारी, मंजू शर्मा, संध्या शर्मा, डॉ. उमा सिंह बघेल, सावित्री मिश्रा, लक्ष्मी भट्ट, मीता लुनिवाल, डाॅ. ऋतु नागर, ममता सिंह "अनिका", मुकेश बिस्सा, रमाकांत तिवारी, शिल्पा मोदी रचनाकारों के रहे।

मंगलवार, सितंबर 14, 2021

🍁 सर्वगुण संपन्न है हिंदी 🍁

नारी का श्रृंगार है हिंदी,
ममता की पुकार है हिंदी,

बचपन का दुलार है हिंदी,

मीठी लोरी माँ की हिंदी,

शीतल चन्द्र छांव है हिंदी,

निर्मल गंगा भाव है हिंदी, 

नैतिकता की भाषा हिंदी, 

हर जीवन की आशा हिंदी,

जन-जन का संग्राम है हिंदी, 

मानव का संस्कार है हिंदी, 

जीने का अभिमान है हिंदी, 

साहित्य का सरताज है हिंदी, 

पुरखों का आशीर्वाद है हिंदी, 

कवियों की ललकार है हिंदी, 

भारत माँ का प्यार है हिंदी, 

दर्पण हिन्दी, अर्पण हिंदी, 

मन से मन का समर्पण हिंदी, 

स्वाभिमान जगाती हिंदी, 

इंकलाब सिखाती हिंदी, 

चरित्रवान की भाषा हिंदी, 

चरित्र नया गढ़ जाती हिंदी, 

तपती हिन्दी, जलती हिंदी, 

अस्त्र-सस्त्र की भाषा हिंदी,  

झांसी की तलवार है हिंदी, 

रण-चण्डी सी लहू मांगती, 

दुश्मन का बस काल है हिंदी, 

तोपों के गोलों सी लगती, 

वैरी के हृदय को भी छू जाती हिंदी, 

समझो तो संयम की भाषा, 

ना समझें तो अंगार है हिंदी, 

जब चाहे आजमाले दुश्मन, 

तर्पण को तैयार है हिंदी, 

अपने पर जो आ जाये तो, 

नव युग का निर्माण है हिंदी, 

नव वधु सी आंगन मे बलखाती,

सर्वगुण संपन्न है हिन्दी। 

✍️ मंजू शर्मा ( सूरत, गुजरात )

पुनीत अनुपम ग्रुप द्वारा आयोजित ऑनलाइन स्नेह ध्येय सृजन महोत्सव के प्रतिभागी रचनाकार सम्मानित।

पुनीत अनुपम ग्रुप द्वारा लोगों को स्नेह के महत्व और विशेषता का अहसास करवाने के उद्देश्य से ऑनलाइन स्नेह ध्येय सृजन महोत्सव का आयोजन किया गया...