कभी राधा नौ मन तेल के बिना नही नाचती,
तो कभी कानों में तेल डाल कर बैठ जाती।
दिल खुश हुआ तो गुलछर्रे उड़ा लिया,
चैन की बंशी बजाते हुए इलाके की खाक भी छान लिया।
पेट में चूहे कूदने पर हाथ पाँव फूल जाते हैं,
झख मारकर लौटकर बुद्धू घर को वापस आते हैं।
हाय ! यह कैसी उल्टी गंगा बह रही,
अक्ल के दुश्मन चांद पर थूकने की कोशिश कर रहे।
बगुला भगत की पांचों उंगलियां घी में हैं
जो मासूम लोगों को,
नाको चने चबवा कर दिन में तारे दिखा रहे हैं।
आंख के तारे को हाय यह कैसा रोग लग गया,
मूंग दल रहा जन्मदाता की छाती पर और आँखे दिखा रहा है।
अपना उल्लू सीधा करने को गड़े मुर्दे भी उखाड़ रहा है।
जहाँ दाल नहीं गलती पीठ दिखाकर भाग रहा है।
अपने मुंह मियां मिट्ठू बने बेटे के सम्मुख,
जहर का घूँट पीकर दिन-रात आँखों में काट रहे हैं।
अँगारे उगलती उसकी आँखों के सम्मुख,
पीठ दिखा अपना सा मुंह लेकर रह जा रहे हैं |
आज की कलयुगी संतान माता-पिता को चकमा दे,
सब्जबाग दिखला उनकी सम्पत्ति पर गुलछर्रे उड़ा रही है।
शर्म से पानी-पानी माता-पिता की जोड़ी भीगी बिल्ली बन,
प्रलय ढाते सन्तान के सम्मुख मुँह छुपा रही है।
जिसके जन्म पर घी के दिए जलाए थे।
उसी की आँखों में खटकने लगे,
रिश्ते तार-तार हुए जनक को आँखे दिखाने लगे।
जिसे देख फूला न समाता आकाश चूमने की तमन्ना की जिसके लिए,
उसी के आग बबूला होने पर आँखें पथरा गईं हैं अभी।
सोचा था आँखों का तारा जीवन में चार चांद लगाएगा,
परंतु आँखे पथरा गई जिंदगी अजीर्ण हो गई।
इस चकमेबाज, अक्ल के दुश्मन, चिकने घड़े के कारण
जीवन से खुशी ईद का चांद हो गई।
हिन्दी मुहावरों की पटरी पर जीवन की गाड़ी,
चल रही हिचकोले ले खाक छाने सवारी।
अँकुश रखने को अंग-अंग मुस्काती प्रलय है ढा रही,
रंग-भंग करने को आपे से बाहर हो बिजली चमका रही।
✍️ निर्मला कर्ण ( राँची, झारखण्ड )
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