नक्षत्रों का योग प्रबल था
आई मधुर वो बेला थी
गाँठ में अपने धर्म बांधकर
निकली नार नवेली थी।
दीप्त हुआ मस्तक सुहाग से
भाग्य पे वो इतराती थी
भरी उमंगों से सतरंगी
आँगन प्रिय का महकाती थी।
मनमोहक आकर्षक पल
जीवन के घूँट-घूँट वो पीती थी
अमर सुहाग अटूट हो बंधन
दिन-रात कामना करती थी।
हँसी-खुशी में गुजर गए दिन
आया निकट क्वार का वक्त
प्रिय के शुभ मंगल विचार से
रखा उसने करवा का व्रत।
करके सोलह श्रृंगार सभी
जब बनी सती अनसुइया सी
छन से टूटा शीशा मन का
और बिखर गया मन का मनका।
वर्तमान के एक सवाल ने
आज उसे झकझोरा था
सहन करूँ मैं क्यों उपेक्षा ?
बस इस ख्याल ने घेरा था।
है कैसी ये विडंबना
क्योंकर है ये रीति-रिवाज ?
पुरुष प्रधान समाज में नारी
क्यों है सिर्फ़ सामानों साज ?
रखती हैं हम करवा का व्रत
सातों जन्म निभाने को
एक जन्म भी पर इनको हम
फूटी आँख ना भाती हैं।
आज मगर सारे समाज से
एक अनुबंध ये करना है...
वस्तु नहीं हैं चीज़ नहीं हम
जीती जागती ललना हैं
परंपरा की बलिवेदी पर
अब हमको नही जलना है।
रची हैं हमने वेद ऋचाएँ
जौहर भी है दिखलाया
सृष्टि जगत के मुक्ति मार्ग का
भेद हमीं ने बतलाया।
क्षुब्ध हुई गर प्रकृति धरा की
ब्रह्माण्ड डोल ही जायेगा
धर्म रीति-रिवाज का ठीकरा
ऐ पुरुष तू कब तक उठाएगा ?
✍️ कुसुम तिवारी झल्ली ( मुंबई, महाराष्ट्र )
एक इठलाता,बलखाता चाँद,
जवाब देंहटाएंमेरे घर-आँगन का।
जिसे निहारता हैं,
आसमान का चाँद भी,
बादलों की ओट से।
चोरी-छिपी नज़रों से,
बेहद सुंदर
जवाब देंहटाएंलाजवाब
लाजवाब 👌
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