कहुं आषाढ़ की बाढ़ सखी,
कहुं बिन बादल बरसात !!
कहुं बरसात बिना बरसे बदरा
बदराय रहे, घन छाए रहे !!
तन देते पिया झुलसाए,
आषाढ़ की उमस भरी गर्मी।
घर से बाहर कैसे निकलूं ?
वहाँ कोरोना की हठधर्मी !!
कहुं बारिश की एक बूंद नहीं।
कहुं बरस के रार मचाए रहे।
बदराय रहे ,घन छाए रहे।
यह कैसी शरारत मौसम की,
बरसात में क्यों इतराता है ?
बारिश में शीतल जल ना दे,
गर्मी में तन को जलाता है।
कहुं पात-के-पात पड़े सूखे,
कहुं गाँव-के-गाँव डुबाए रहे।
बदराय रहे, घन छाए रहे।
कुछ पंक्षियों के कलरव गूंजे,
जो घर के आसपास रहते थे।
उजड़ गया घर बार था जिनका,
वो अब दूर पेड़ पर गाते थे।
कहुं पेड़ विलायत के लागत
कहुं चंदन बाग कटाए रहे।
बदराय रहे, घन छाए रहे।
सावन ने कहा तब झूले से,
"दिन फिर बदलेंगे तेरे-मेरे
हरी-भरी धरती होगी जब,
झूलेंगे राधा संग मोहन मेरे।
सावन ने कहा तब मौसम से,
हम नेहुरे-नेहुरे आए रहे।
बदराय रहे, घन छाए रहे।
✍️ प्रतिभा तिवारी ( लखनऊ, उत्तर प्रदेश )
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