महिमा के ऊपर आजकल काम का बोझ बढ़ गया था। क्योंकि कामवाली बाई को भी कोरोना के बढ़ते प्रकोप के कारण उसने छुट्टी दे रखी थी। वह तो काम करने आ ही रही थी। मास्क लगा कर ही आती थी। आते ही सबसे पहले अपने दोनों हाथों को साबुन से धोती काम प्रारंभ करती। उसके घर में भी कोई कोरोना से प्रभावित नहीं था। फिर भी महिमा ने सुरक्षा के दृष्टिकोण से उसे अभी काम पर आने से मना कर दिया, और उसका पिछला हिसाब करके उसे पैसे दे दिए। अब उसे घर की सफाई, बर्तन धोना, कपड़े धोना सारा काम स्वयं करना होता था। खाना नाश्ता तो पकाती ही थी। उस पर स्वयं भी कार्यालय के कार्य घर से करती और अपने बच्चे की पढ़ाई का ध्यान भी रखती। परिवार छोटा था परन्तु काम तो पूरा ही था। तब भी छत पर दाना और पानी डालना नहीं भूलती थी। गमलों में भी पानी डालती। प्रति दिन पंछियों के लिए छत पर दाना और सकोरों में पानी डालती। उसके पति ने एक दिन कहा भी - " पौधों में पानी डालना तो ठीक है, परन्तु छत पर रोज पानी रखने की क्या आवश्यकता है। पंछी तो किसी भी तालाब से पानी पी लेंगे। वैसे भी प्रत्येक घर के छत पर दाना पानी रखे रहते हैं, तो तुम एक-दो दिन नहीं भी डालोगी तो चल जाएगा"।महिमा ने कहा - "कैसे न डालूं । यह मूक प्राणी हैं। अपनी आवश्यकता नहीं बताते तो, क्या इन्हें दाना पानी नहीं देंगे। इनका जीवन भी तो हम पर निर्भर है"। और पतिदेव मुस्कुरा कर चुप रह जाते। आज भी छत पर दाना-पानी डालकर महिमा नीचे आकर चाय बनाने ही जा रही थी तभी फोन घंटी बजी महिमा ने फोन उठाया उसके पति सुनते रहे। वह बोल रही थी - "हां सोमा, बोलो ......नही नही अभी तो कोरोना पूरे उफान पर है। अभी घर में ही रहो। कुछ कम होगा मैं तुम्हें बुला लूंगी ....... क्या कहा पैसे चाहिए परन्तु तुम्हें पैसे तो दे दिए थे ना...... तुम्हारा तो कुछ भी बाकी नही है...... वाह क्या बात करती हो मैं काम भी स्वयँ करूं और तुम्हें पैसे भी दूँ ........ आकस्मिक आवश्यकता के लिए तुम्हें बचा कर रखना चाहिए था ना ......... इतने पैसे दे दूँ तो तुम कब चुका पाओगी। ......उसके पति विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देख रहे थे । आश्चर्य हो रहा था उन्हें कि पंछियों की भूख और प्यास का ध्यान रखने वाली उनकी पत्नी जीवित मानव की आवश्यकयों का ध्यान नहीं रख पा रही। कुछ सोच कर उन्होंने महिमा के हाथ से फोन लिया और फोन में कहा - "हाँ सोमा तुम हमारे पड़ोस वाले किराने की दुकान से आवश्यकता की सभी वस्तुएं ले जाओ, मैं उसे बोल दे रहा हूं और जितने पैसे की आवश्यकता हो अन्य कामों के लिए, तो आकर भाभी से ले जाना"। कह कर उन्होंने फोन काट दिया। अब महिमा अपने पति की ओर क्रोधित हो कर देख रही थी। फिर उसने कहा - "आपने दानी कर्ण बन कर बोल तो दिया परंतु पता है किराने का सामान कितने का आएगा। ऊपर से आपने पैसे लेने के लिए भी बोल दिए। कब चुका पाएगी वह इतने पैसे"। पति ने बहुत शांति से उत्तर दिया - तुम जो पंछियों को रोज दाना और पानी देती हो क्या वे तुम्हें उसकी कीमत चुका पाते हैं। नहीं ना, तुम अपना मानव धर्म निभा रही थी। तो यहां क्यों भूल जाती हो अपना मानव धर्म। अब तुम सोचो, सोमा हमारे यहां काम करती थी तो उसे दो समय खाना भी मिलता था पैसे भी मिलते थे; जिससे उसके परिवार का खर्च चलता था। तुमने उसे आने से मना किया है। वह तो आ ही रही थी। उसने तो मना नहीं किया। उसके प्रति तुम अपना मानव धर्म नहीं निभाओगी ? तुम सिर्फ यही सोचो यदि हम कार्यालय जाते तो आने जाने में जो खर्च होता, बस उसी से हम उसकी सहायता कर देंगे"। महिमा की समझ में बात आ गई । अब उसने भी धीरे से हामी भर दी। मन ही मन वह सोच रही थी कि पंछियों का ध्यान रखने वाली वह मानव को कैसे भूल गई थी।
✍️ निर्मला कर्ण ( राँची, झारखण्ड )
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